Tuesday, 19 November 2019

स्वतंत्रता का अर्थ एवं परिभाषा, स्वतंत्रता के विविध रूप तथा स्वतंत्रता के मार्ग की प्रमुख बाधाएं


 *स्वतंत्रता का अर्थ :-

                                               जिस शब्द या आंदोलन के इर्द-गिर्द मानव सभ्यता व्याकुल है आखिर वह है क्या?  केवल बंधनों का अभाव ही स्वतंत्रता है तो मनुष्य पर इस पर संघर्षों से ही नष्ट हो जाएगा  प्रबल या सक्षम ही स्वतंत्र होंगे | स्वतंत्रता व्यक्ति की अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है इस दौरान दूसरे व्यक्तियों की इसी प्रकार की स्वतंत्रता मैं कोई बाधा  नहीं पहुंचे इस प्रकार की स्वतंत्रता के दो  विचार हुए -एक  बंधनों का अभाव दूसरा उपयुक्त बंधनों का होना | 

* स्वतंत्रता का नकारात्मक अर्थ :-

                                                                               यह वह स्थिति है जिसमें कोई बंधन नहीं होता है  | व्यक्ति को मनमानी करने की छूट हो समझौता वादी विचारक होम्स के अनुसार `स्वतंत्रता का अभिप्राय निरोध व नियंत्रण का सर्वथा अभाव है रूसो भी इसी अवधारणा से  प्रभावित था | व्यक्तिवादी विचारक भी स्वतंत्रता इसी स्वरूप का समर्थन करते हैं | 
( 1 ) प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है | 
( 2 ) राज्य का कार्यक्षेत्र बढ़ने से व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित होती है | 
( 3 ) कम से कम शासन करने वाली सरकार अच्छी सरकार है | 
( 4 ) मानव विकास के लिए खुली प्रतियोगिता का सिद्धांत हितकर है | 

* स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ:-

                                                                          मनुष्य अपने लिए उन परिस्थितियों का निर्माण करें जो उसके विकास के साथ-साथ साथी नागरिकों के लिए भी ऐसी परिस्थितियां गढ़  सकें | स्पेंसर के अनुसार - प्रत्येक व्यक्ति वे सब कुछ करने को स्वतंत्र है जिसकी वे इच्छा करता है यदि वे इस दौरान अन्य व्यक्ति की सम्मान स्वतंत्रता का हनन नहीं करता हो | 
( 1 ) समाज एवं व्यक्ति के हित परस्पर निर्भर है | 
( 2 ) स्वतंत्रता का सही स्वरूप राज्य के  कानून पालन में है | 
( 3 ) राजनैतिक एवं नागरिक स्वतंत्रता का मूल्य आर्थिक स्वतंत्रता के बिना निरर्थक है  | 

* स्वतंत्रता के विविध रूप :-

( 1 ) प्राकृतिक स्वतंत्रता ( natural liberty ) :-

                                                                                                            मनुष्य को स्वतंत्रता का यह रूप मनुष्य या किसी मानवीय  संस्था से प्राप्त नहीं होता है बल्कि यह प्रकृति प्रदत हैं यह प्रकृति द्वारा मनुष्य के जन्म के साथ ही उसके व्यक्तित्व में निहित है व्यक्ति स्वयं  भी इसका हस्तांतरण नहीं कर सकता है यह स्वतंत्रता राज्य के अस्तित्व में आने से पूर्व की अवस्था है इनका मानना है कि राज्य की स्थापना के साथ ही यह स्वतंत्रता धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती है रूसो ने इसलिए तो कहा है - मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किंतु वह सर्वत्र बंधनों में जकड़ा रहता है समझौता वादी विचारक इस स्वतंत्रता के समर्थक थे | 

( 2 ) निजी /व्यक्तिगत स्वतंत्रता ( personal liberty ) :-

                                                                                                                              मनुष्य को अपने निजी जीवन के कार्यों में स्वतंत्रता होनी चाहिए उसके व्यक्तिगत कार्यों पर केवल समाज हित में ही बंधन लगाए जा सकते हैं लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों की निजी स्वतंत्रता का बहुत महत्व स्वतंत्रता के रूप हैं उन्हें अपनी पसंद विचार अभिव्यक्ति और मूल्यों के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता होती है वेशभूषा खान-पान रहन -सहन  परिवार धर्म आदि क्षेत्रों में क्षेत्रों में व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए | 

( 3 ) नागरिक स्वतंत्रता ( civil liberty ) :-

                                                                                            यह नागरिक होने के कारण मनुष्य को उस देश में मिलने वाली वे स्वतंत्रताए जिन्हें समाज स्वीकार करता है और राज्य मान्यता प्रदान कर सिलेक्शन प्रदान करता है हमारे देश में यह स्वतंत्रता मूल अधिकारों के रूप में संविधान में समाहित की गई है | 

( 4 ) राजनीतिक स्वतंत्रता ( political liberty ) :-

                                                                                                             राज्य के कार्यों में राजनैतिक व्यवस्था में हिस्सेदारी का नाम राजनीतिक स्वतंत्रता है यह वह स्वतंत्रता  है जिसमें भारतीय नागरिक को मतदान करने चुनाव में हिस्सा लेने एवं सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति पाने का अधिकार हो | 

( 5 ) आर्थिक स्वतंत्रता ( economic liberty ) :-

                                                                                                             आर्थिक स्वतंत्रता  से अभिप्राय है कि व्यक्ति का आर्थिक स्तर ऐसा होना चाहिए जिसमें वह स्वाभिमान के साथ बिना वित्तीय चुनौतियों का सामना किए स्वयं  व परिवार का जीवन निर्वाह कर सकें यह आर्थिक सुरक्षा भी है इसमें आर्थिक आधार पर विषमताओं  को कम करने के प्रयास भी शामिल है जिसमें शोषण का दायरा न्यूनतम हो व्यक्ति आर्थिक गुलामी की अवस्था में नहीं हो सभी को आर्थिक उन्नति के समान अवसर प्राप्त हो 

( 6 ) धार्मिक स्वतंत्रता ( religious liberty ) :-

                                                                                                            इसका संबंध अंतः करण से यह व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने आस्था वे आचरण की छूट देता है इस स्वतंत्रता मे धार में के संस्कार रीति रिवाज पूजा के तरीके संस्थाओं के गठन धर्म के प्रचार की आजादी है | 

( 7 ) नैतिक स्वतंत्रता ( moral liberty ) :-

                                                                                              इसका सामान्य व्यक्ति के चरित्र नैतिकता एवं औचित्य पूर्ण व्यवहार से अधिकरण एवं नैतिक गुणों से प्रभावित होकर जो व्यक्ति कार्य करता है तो वह नैतिक स्वतंत्रता है  सवार्थ लोग क्रोध घृणा जेसी चारित्रिक  दुर्बललताओं के वंशीभूत होकर कार्य करने वाला व्यक्ति नैतिक परतंत्रता की श्रेणी में आता है | 

* स्वतंत्रता के लिए आवश्यक शर्तें :-

( 1 ) व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति निरंतर जागरूकता | 

( 2 ) समाज में लोकतांत्रिक भावनाओं का पनपना | 

( 3 ) साथी  नागरिकों को विशेषाधिकार नहीं होना | 

( 4 ) आर्थिक दृष्टि से समतामूलक समाज | 

( 5 ) समाज में शांति व सुरक्षा का वातावरण | 

( 6 ) संविधानवाद | 

( 7 ) स्वतंत्र - न्यायपालिका | 

( 8 ) निष्पक्ष जनमत | 

* स्वतंत्रता के मार्ग की प्रमुख बाधाएं :-

( 1 ) गरीबी तथा संसाधनों का अभाव | 

( 2 ) न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप |

( 3 )राष्ट्र विरोधी तत्व अथवा आतंकवाद | 

( 4 ) अराजकता  का वातावरण | 

( 5 )  अशिक्षा | 

( 6 ) कार्यपालिका का स्वेच्छाचारी आचरण | 

( 7 ) अपनी स्वतंत्रता  के प्रति जागरूकता का अभाव | 

( 8 ) सविधान वे कानूनों के प्रति सम्मान का अभाव | 

                                                                   

                                              

Sunday, 17 November 2019

द्वितीयक व्यवसाय एवं उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक, विनिर्माण उद्योगों का वर्गीकरण


* विनिर्माण उद्योग :-

                                             विनिर्माण उद्योग का अर्थ प्राथमिक उत्पादन से प्राप्त कच्ची सामग्री को शारीरिक अथवा यांत्रिक शक्ति द्वारा परिचालित औजारों की सहायता से पूर्व निर्धारित एवं नियंत्रित प्रक्रिया द्वारा किसी इच्छित रूप आकार या विशेष गुणधर्म वाली वस्तुओं में बदलना है विनिर्माण उद्योग के नाम से अक्सर यह भ्रांति हो जाती है कि यह केवल वृहद  स्तर का उद्योग हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है इस उद्योग को किसी भी स्तर पर आरंभ किया जा सकता है इस अर्थ में अति साधारण वस्तुओं यात्रा मिट्टी से मिट्टी के बर्तन में खिलौने बनाने से लेकर भारी से भारी निर्मित वस्तुएं जैसे बड़ी मशीनें जलयान भारी रसायन  बनाने संबंधी अधिक सभी उद्योग सम्मिलित हैं निर्माण उद्योग में प्रयोग किए जाने वाले पदार्थ प्राकृतिक दशा में कच्चा माल कहलाते हैं जैसे धातु अयस्क लकड़ी कपास आदि चिड़ी हुई लकड़ी जिससे कागदी लुगदी बनाई जाती है कपास का धागा जैसे वस्त्र बनना चाहता है किसी भी देश में निर्माण उद्योग के विकास के साथ ही उसकी राष्ट्रीय आय बढ़ती है वह देश विकसित होता जाता है | 

* उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक :-

                                                                                                                                     उद्योगों की स्थापना केवल उन्ही  स्थानों पर हो सकती है जहां उनके विकास के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाएं उपलब्ध हो उद्योगों की अवस्थिति व  विकास को प्रभावित करने वाले कारक को आरेख 9.1 द्वारा दर्शाया गया है | 

( 1 ) कच्चा माल:-

                                             किसी भी उद्योग के विकास के लिए कच्चा माल सुगमतापूर्वक, पर्याप्त में सस्ती दर पर प्राप्त होना चाहिए | अत : अधिकतर उद्योगों खानों , वनों, कृषि क्षेत्र समुंद्र तटीय क्षेत्रों के निकट ही अवस्थित है जिन उद्योगों का कच्चा माल भारी सस्ता व  जिनमें निर्माण के दौरान वजन कम होता है उनमें इसी तरह की प्रवृत्ति पाई जाती है इंसाने होने पर उनका परिवार भी बढ़ जाएगा अधिकांश लोहा इस्पात उद्योग कोयले की खानों के पास लोहे की खानों के पास अथवा कोयला लोहे अयस्क की खानों के बीच किसी अनुकूल स्थान पर स्थापित किया जाता है फल सब्जियां दूध मछलियां जैसे शीघ्र खराब होने वाले कच्चे माल पर आधारित उद्योगों को कच्चे माल के स्त्रोत के समीप स्थापित किया जाता है | 

( 2 ) शक्ति के साधन :-

                                                      शक्ति के साधन का सुचारू एवं सुगम रूप में मिलना उद्योगों के केंद्रीयकरण एवं विकास के दिया विषय के शक्ति के प्रमुख साधन कोयला पेट्रोलियम जलविद्युत प्राकृतिक गैस और परमाणु ऊर्जा है लोहा इस्पात उद्योग जैसे भारी उद्योग कोयले से शक्ति प्राप्त करते हैं यह कोयले की खानों के समीप स्थापित किए जाते हैं संयुक्त राज्य अमेरिका रूस में यूरोपीय देशों के अधिकार लौह इस्पात केंद्र कोयला खदानों के पास ही स्थित है भारत के प्रमुख लोहा इस्पात केंद्र दामोदर घाटी में झेरिया वे रानीगंज कोयला खदानों के निकट स्थापित है | 

( 3 ) परिवहन व संचार के साधन :-

                                                                                कच्चे माल को कारखानों तक लाने तथा तैयार माल को बाजार तक पहुंचाने के लिए तीव्र सक्षम परिवहन सुविधाएं औद्योगिक विकास के लिए अत्यावश्यक है परिवहन लागत का औद्योगिक इकाई की स्थिति में महत्वपूर्ण स्थान होता है पशिचमी  यूरोप उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भागों में विकसित परिवहन तंत्र के जाल की वजह से सदैव इन क्षेत्रों में उद्योगों का जमाव है एशिया, अफ्रीका, में दक्षिणी अमेरिका, के अधिकांश देशों में परिवहन के साधनों की कमी के कारण औद्योगिक विकास कम हुआ है | 

( 4 ) बाजार :-

                                 उद्योगों की स्थापना में सबसे प्रमुख कारक उसके द्वारा उत्पादित माल के लिए बाजार का उपलब्ध होना जरूरी है बाजार से तात्पर्य उस क्षेत्र में तैयार वस्तुओं की मांग एवं वहां के निवासियों की कैरियर शक्तियां विकसित देशों के लोगों की क्रय शक्ति अधिक होना तथा सघन बसे  होने के कारण वृहद वैशिवक बाजारे दक्षिणी वे दक्षिणी पूर्वी एशिया के सघन बसे प्रदेश भी वृहद बाजार उपलब्ध कराते हैं | 

( 5 ) पूंजी :-

                          किसी भी उद्योग की स्थापना एवं संचालन के लिए पर्याप्त पूंजी होना अनिवार्य कारखाना लगाने मशीनें वह कच्चा माल खरीदने और मजदूरों को वेतन देने के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है विकासशील देशों में पूंजी की कमी के कारण आशातीत औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है | 

( 6 ) जलापूर्ति :-

                                    किसी निर्माण उद्योग की अवस्थिति पर जलापूर्ति का भी प्रभाव होता है लोहा इस्पात उद्योग ,वस्त्र उद्योग, रासायनिक उद्योग, कागज उद्योग, चमड़ा उद्योग, आणविक विद्युत ग्रह आदि कुछ ऐसे उद्योग है जो जल के बिना विकसित नहीं हो सकते हैं अत : ऐसे  उद्योग किसी स्थायी जल स्त्रोत के निकट स्थापित किए जाते हैं | 

( 7 ) सरकारी नीतियां :-

                                                     किसी देश की सरकार की नीतियां भी उद्योगों के विकास को प्रभावित करती है यदि किसी देश की सरकार वहां उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर रही है तो विदेशी कंपनियां वहां उद्योग नहीं लगा पाएगी इसके विपरीत यदि टैक्स में छूट अथवा अन्य सुविधाएं दी जाए तो उद्योगों के विकास की संभावना बढ़ जाती है | 

* विनिर्माण उद्योगों का वर्गीकरण :-

                                                                          विनिर्माण उद्योगों का वर्गीकरण उनके आकार कच्चे माल उत्पाद के स्वामित्व के आधार पर किया जाता है | 

( 1 ) आकार पर आधारित उद्योग :-

                                                                                    किसी उद्योग का आकार उसमें निवेशित  पूंजी कार्यरत श्रमिकों की संख्या एवं उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है आकार के आधार पर उद्योगों को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है | 
( 1 ) कुटीर उद्योग | 
('2 ) लघु उद्योग | 
( 3 ) बड़े पैमाने के उद्योग | 

( 1 ) कुटीर उद्योग :-

                                           यह निर्माण की सबसे छोटी इकाई है इसमें दस्तकार स्थानीय कच्चे माल का उपयोग करते हैं वह कम पूंजी तथा दक्षता से साधारण औजारों के द्वारा परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर घरो  में ही अपने दैनिक जीवन के उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन करते हैं | 

( 2 ) लघु उद्योग :-

                                     इन्हें छोटे पैमाने के उद्योग कहते हैं इसमें स्थानीय कच्चे माल का उपयोग होता है इसमें अर्द्ध - कुशल श्रमिकों व शक्ति के साधनों से चलने वाले यंत्रों का प्रयोग किया जाता है यह उद्योग विकासशील देशों की सघन बसी  जनसंख्या को बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराते हैं | 

( 3 ) बड़े पैमाने के उद्योग:-

                                                           बड़े पैमाने के उद्योगों के लिए विभिन्न प्रकार का कच्चा माल शक्ति के साधन विशाल बाजार, कुशल श्रमिक  उच्च प्रौघोगिकी व आदि पूंजी की आवश्यकता होती है इन उद्योगों का सूत्रपात औद्योगिक क्रांति के बाद हुआ | 

( 2 ) कच्चे माल पर आधारित उद्योग:-

                                                                                    कच्चे माल पर आधारित उद्योगों को पांच भागों में बांटा जा सकता है | 
( 1 ) कृषि आधारित उद्योग | 
( 2 ) खनिज आधारित उद्योग | 
( 3 ) रसायन आधारित उद्योग | 
( 4 ) वनोत्पादक आधारित उद्योग | 
( 5 )पशु आधारित उद्योग | 

                                                       

                              

  

Friday, 15 November 2019

मानवेन्द्रनाथ रॉय का राजनीतिक चिंतन एवं भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या



* मानवेन्द्र नाथ रॉय का परिचय :-

                                                                              मानवेन्द्र नाथ रॉय  ( 1886 - 1954 ) का जन्म एक ऐसे समय में हुआ जब बंगाल में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का बहुत प्रभाव था निश्चित रूप से ऐसे समय में राजनैतिक बोध का होना अपने आप में महत्वपूर्ण है अतः मानवेन्द्र नाथ रॉय अपने विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी बन गए थे अर्थात प्रारंभिक जीवन से ही वामपंथ की तरफ उनका झुकाव हो जाता है क्योंकि रॉय  कट्टर राष्ट्रवादी थे आते राष्ट्रीय मुक्ति की खोज में सन 1915 में वह भारत छोड़कर इंडोनेशिया चले गए वहां से जावा, फिलीपीन, कोरिया, तथा मंचूरिया,  होते हुए वे अमेरिका पहुंचे जहां उग्रवादी नेता लाला लाजपत राय ने उनकी दोस्ती हुई वैचारिक धरातल पर माकर्सवाद के प्रभाव कारण यहां पर एम. एन.  रॉय यह मानने लगे कि राष्ट्रवाद को समाजवाद के साथ छोडकर देखा जाना चाहिए | 

* उपनिवेशीकरण का सिद्वान्त :-

                                                                             कॉमिन्टर्न के छटे कांग्रेस अधिवेशन 1928 में एम. एन. रॉय ने उपनिवेशीकरण  का सिद्धांत प्रतिपादित किया  | उपनिवेशीकरण का अर्थ यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूंजी का हास हो चुका है आते उसके लाभ का कुछ अंश भारतीय पूंजीपति वर्ग को प्राप्त होगा इस तरह रॉय साम्राज्यवाद के बदलते हुए स्वभाव का उल्लेख किया | इसलिए उनके लिए आवश्यक हो गया है कि वे उपनिवेशन के पूंजीपति वर्ग के साथ संयुक्त साझेदारी कायम करें अतः एमएन रॉय का था कि आगे चलकर साम्राज्यवाद का मूल्य घट जाएगा और तब विदेशी पूंजीपतियों को बाध्य होकर अपनी शक्ति का परित्याग करना पड़ेगा साथ ही इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव यह भी पास किया जिसमें भारतीय जनता को चेतावनी दी गई कि प्रतिक्रियावादी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उनके साथ कभी भी विश्वासघात कर सकती है  | जिन्होंने साम्राज्यवादियों के साथ प्रतिस्पर्धात्मक रूप से जनसामान्य का शोषण करना प्रारंभ कर दिया है जैसे-जैसे यह नया बुर्जुआ वर्ग संगठित होता गया वैसे-वैसे उसने साम्राज्य वादियों से औद्योगिक क्षेत्र में रियासतें मांगना प्रारंभ कर दिया साथ ही दूसरी तरफ साम्राज्य वादियों को जनसामान्य के आक्रोश का भी सामना करना पड़ा फल देते एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो गई और जैसे-जैसे यह क्रांतिकारी स्थिति बढ़ती गई वैसे-वैसे साम्राज्य वादियो ने रियासतें देना प्रारंभ कर दिया साम्राज्य वादियों ने जिस अनुपात में रियासत यदि उस अनुपात में रियासतें उनके पतन का कारण बन गई आते इस नए बुर्जुआ वर्ग अपने कार्यों का संपादन निजी तौर पर साम्राज्य वादियों के पृथक रूप से करना प्रारंभ कर दिया भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नई आर्थिक नीति ने वर्ग विभिनता को तीर्थ करते हुए उस वर्ग संघर्ष की ओर बढ़ा दिया तथा यह मान्यता की राष्ट्रीय संग्राम पूंजीवादी विरोधी आधार पर टिका हुआ है अपनी मान्यता खो चुका है अतः रॉय ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारत में पुजवा वर्ग क्रांतिकारी वर्ग नहीं है और न ही वे जन सामन्य को क्रांतिकारी स्थिति की ओर अग्रसर कर सकता है | 

* भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या :-

                                                                                                          एम. एन. रॉय ने भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी  व्याख्या द्वारा भारतीय समाजवादी चिंतन को महत्वपूर्ण योगदान दिया है |  एम. एन. रॉय का मानना था कि सामंतवादी अर्थव्यवस्था का धीरे धीरे श्रय हो रहा है भारत में सामंतवादी व्यवस्था को सबसे पहले धक्का ब्रिटिश अधिपत्य के प्रारंभिक काल 18 वीं शताब्दी के मध्य में लगा जबकि राजनीतिक सत्ता विदेशी वाणिज्यिक बुर्जुआ वर्ग के हाथों में चली गई सामंतवाद के अंतिम अवशेषों को 1857 की क्रांति की असफलता ने चूर चूर कर दिया जिससे कि एम. एन. रॉय ने सामंतवादी व्यवस्था द्वारा अपनी प्रभुता प्राप्ति के अंतिम प्रयास की संख्या दी है भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एक तरह  से पूंजीवादी उत्पादन साधन तंत्र के रूप में थी  | परंतु वे जानता था कि ब्रिटिश सत्ता को जन सामान्य के सहयोग के बिना नहीं हटाया जा सकता आते उसने जनसामान्य के साथ मिलकर राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करना शुरू कर दिया इस संदर्भ में रॉय  उदाहरण देते हुए कहते हैं कि सर 1905 में मुस्लिम लीग  की स्थापना पूंजीपति मुसलमानों के हित वृद्धि की सत्ता थी तथा उसने कांग्रेस से विरोधी रुख अपनाया परंतु कालांतर में चलकर लीग ने अपने प्रारंभिक भूमिका को त्याग दिया और 1 वर्ग के रूप में भारतीय बुर्जुआ राष्ट्रीय आंदोलन में अपने को विंध्य कर दिया साथ ही रॉय  ने यह बहुत ही उल्लेखनीय तथ्य स्पष्ट किया कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग की भूमिका यूरोप की भांति सामाजिक दृष्टि से प्रगतिकरी नहीं रही | 

* मार्क्सवाद की आलोचना :-

                                                            मानवेन्द्रनाथ रॉय का चिंतन मार्क्स से काफी प्रभावित रॉय  ने चिंतन  निर्धारण में मार्क्सवादी दर्शन की महती भूमिका रही किंतु बेचारी विकास की दृष्टि से उनके चिंतन के दो पक्ष रहे | 
    ( 1 ) प्रतिबंद मार्क्सवादी रूप में | 
 
    ( 2 ) संशोधनवादी के रूप में | 

* नव मानववाद :-

                                   मानववादी तत्व पाश्चत्य दर्शन के अन्य संप्रदायों तथा युगों में देखने को मिलते हैं वे मानव को सर्वोपरि महत्व देते हैं परंतु रॉय के अनुसार मानव को किसी अतिमानव या अप्राकृतिक सत्ता के अधीन करने की मिथ्या  धारणा से नहीं बच पाए हैं उनका मनुष्य एक रहस्य  एक विश्वास का विषय ही बना रहा है रॉय  ने इस मिथ्या धारणा को भंग करने का प्रयास किया उन्होंने मानव को आपने मानवतावाद का केंद्र बनाया जो कि मानव जगत से सभी प्रकार की अतिप्राकृतिक सतता को बहिष्कृत करता है मानव समाज के अपने ज्ञान में हमें अपने आपको केवल मनुष्य तथा स्वतंत्रता की खोज तक ही सीमित रखना चाहिए यह तो उन लोगों के लिए जो कि संसार की वास्तविकता में विश्वास रखते हैं किंतु उस विश्वास के लिए यह मानना आवश्यक नहीं समझते कि संसार की सृष्टि एक दूसरे शब्द द्वारा हुई है जो रेशिया वाद के बिना अस्मिता की धारणा का सामना कर सकते हैं जो अपनी जाति को विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम मानते हैं और जो नैतिकता में विश्वास इसलिए करते हैं कि क्योंकि यह मानव स्वभाव के अनुकूल है इसलिए नहीं कि उसकी व्यवस्था ईश्वर ने की है | 

* आधारभूत मूल्यात्मक तत्व :-

                                                              नवीन मानववाद नैतिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता  को स्वीकार करता है या आध्यात्मिक स्वतंत्रता  का अर्थ राजनैतिक आर्थिक तथा सामाजिक शक्तियों से मुक्ति है | यूरोप में पुनर्जागरण के आध्यात्मिक स्वतंत्रता  का संदेश दिया था किंतु पूंजीवादी समाज के बंधनों से उत्पन्न भय  तथा नैतिक अविश्वास ने उसे अभिभूत कर दिया स्वतंत्रता एक वास्तविक सामाजिक धारणा है वह जीवन की एक प्रमुख प्रेरणा  है स्वतंत्रता कोई बरमान से पहले की वस्तु भी नहीं है उससे संसार में करना होता है कुछ आंतरिक नियमन तथा बाह्य बंधनों के बावजूद आत्म स्वतंत्रता  रह सकती है  | 

* अविकल मानववाद के तीन आधारभूत मूल्यत्मक तत्व :-

 ( 1 ) स्वतंत्रता 

 ( 2 ) बुद्धि 

 ( 3 ) नैतिकता  | 


* स्वतंत्रता के तीन मुख्य स्तंभ :-

 (1 ) मानववाद | 

 ( 2 ) व्यक्तिवाद | 

 ( 3 ) बुद्धि वाद | 
 नवीन मानववाद विश्व राज्यवादी है आध्यात्मिक दृष्टि से स्वतंत्र व्यक्तियों का विश्व राज्य राष्ट्रीय राज्यों की सीमाओं से परी बंद नहीं होगा वे राज्य पूंजीवादी फासीवादी समाजवादी साम्यवादी अथवा अन्य किसी प्रकार के क्यों न हो राष्ट्रीय राज्य मानव के बीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण के आघात से धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएंगे | 

Thursday, 14 November 2019

अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का अर्थ एवं प्रकार तथा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी विकास एवं उनका मूल्यांकन


* अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का अर्थ :-

                                                                             अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के अर्थ को स्पष्ट करने से पूर्व उससे पहले हम उन अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को समझना होगा जिन्होंने तत्व संबंधी अंतर्राष्ट्रीय आचरण को प्रभावित किया है अंतरराष्ट्रीय संबंधों में द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात परिवर्तनों का क्रम जारी रहा क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जो राज्यों की नई सीमाएं बनी और उनमें जो परिवर्तन घटित हुए उनके प्रति व्यापक नाराजगी थी इनमें से कुछ परिवर्तन एशिया अफ्रीका और लैटिन अमेरिका देशों के अनुरूप नहीं थे इसी के साथ-साथ रंगभेद साम्राज्यवाद और देशों के बीच विभिन्न प्रकार की असमानताओं की स्थितियों अंतरराष्ट्रीय संबंधों में निरंतर बनी हुई इन स्थितियों के प्रति विरोध की मुखरता 1970 के लगभग अधिक परख हुई और अंतरराष्ट्रीय अहिंसा का प्रदर्शन सहसा उग्र हो गया अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को परिभाषित करने का विभिन्न विद्वानों ने प्रयास किया है | 

ब्रेन एम. जेनकिन्स के आतंकवाद को परिभाषित करते हुए:- 

 यह हिंसा के प्रयोग की धमकी है व्यक्ति को हिंसात्मक कार्य है अथवा यह हिंसा का प्रचार है जिसका उद्देश्य भय  के प्रयोग से आतंकित करना है | आतंकवाद को सही संदर्भ में समझने के लिए यह देखना होगा कि इस शब्द का प्रयोग कौन कर रहा है इसके बढ़ते हुए प्रयोग से यह स्पष्ट है कि यह शब्द मात्र विरोधी द्वारा हिंसा के प्रयोग को ही स्पष्ट करता है | 

( 1 ) आतंकवाद में हिंसा के संदर्भ व्यापक रूप से विद्यमान रहते हैं | 

( 2 ) आतंकवाद को फैलाने उसके प्रयोग और प्रचार को मुख्य उद्देश्य माना गया है | 

( 3 ) आतंकवाद शब्द का प्रयोग कौन कर रहा है इस पर विशेष आग्रह किया गया है क्योंकि सामान्य रूप से विरोधी द्वारा हिंसा के प्रयोग  को आतंकवाद के रूप में लिया जाता है | 

जी.  श्वर्जनबगेर ने आतंकवाद को परिभाषित किया :- 

               एक आतंकवादी की परिभाषा उसके तत्कालीन उद्देश्य से की जा सकती है वह शक्ति का प्रयोग भी भय को उत्पन्न करने के लिए करता है और इसके द्वारा वह उस उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है जो उसके मस्तिक में है | आतंकवाद के मुख्य उद्देश्य के रूप में भय  को उत्पन्न करना स्वीकार किया है | 

 बसोनी ने आतंकवाद को परिभाषित किया:-

     उनके अनुसार आतंकवादी परिभाषा से ही यह सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ अपराधी बताएं जो अपने हर कार्य के कानूनी स्वरूप को अस्वीकार करता है तथा अपनी जेल की सजा या मृत्यु दंड को अपने उद्देश्यों के लिए छोटा सा त्याग मानता है | 

* अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के प्रकार:-

 आतंकवाद के अर्थ को स्पष्ट करने के बाद जिस प्रश्न पर चर्चा की जा सकती है वह है आतंकवाद के प्रकारों की आतंकवाद को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है | 

( 1 ) व्यक्तिगत आतंकवाद | 

( 2 ) अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद | 

( 3 ) राज्य का आतंकवाद | 

( 1 ) व्यक्तिगत आतंकवाद:-

                                                            सबसे पहले यहां व्यक्ति का आतंकवाद की चर्चा की जाएगी इसमें आतंकवादी व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से किसी वर्ग पर या किसी व्यक्ति विशेष पर आक्रमण करते हैं जिसका उद्देश्य स्थापित शासन पर आक्रमण करना किसी राज्य विशेष के विरुद्ध कार्यवाही करना या किसी राज्य के विचार पर ही आक्रमक रुख होता है व्यक्तिगत आतंकवाद के शिकार मुख्त:  व्यक्ति होते हैं किंतु कई अवसरों पर प्रति आत्मक संस्था जैसे दूतावास अनु संस्थान वायुयान आदि आक्रमण के केंद्र रहते हैं किंतु अंतिम उद्देश्य तो राज्य ही होता है इसलिए इसे व्यक्तिगत आतंकवाद कहा जाता है | 

( 2 ) अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद :-

                                                                     अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद व्यापक विचार-विमर्श और चिंता का विषय रहा है क्योंकि इसके परिणाम सबसे अधिक गंभीर रहे हैं अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद हिंसा या भय का वह कार्य है जिसका क्षेत्राधिकार अंतरराष्ट्रीय होता है यथा  जिसे करने वाला एक राज्य का हो और जिसके विरुद्ध किया गया हो वह दूसरे राज्य का या ऐसी हिंसा की कोई घटना हो के जो दोनों ही में क्षेत्राधिकार से बाहर की हो | 
( 1 ) अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी हिंसा या भय का कार्य | 

( 2 ) अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का क्षेत्रधिकार अंतरराष्ट्रीय होता है | 

( 3 ) अपराध करने वाला या जिसके विरुद्ध अपराध किया वे अलग-अलग राज्यों के होते हैं | 

( 4 ) हिंसा या अपराध जहाँ हुआ हो वह क्षेत्र दोनों राज्यों का हो ही नहीं | 

( 3 ) राज्य का आतंकवाद :-

                                                                   राज्य के आतंकवाद की चर्चा आतंकवाद विश्लेषण में आवश्यक है यह हिंसा राज्य के द्वारा की जाने वाली हिंसा है राज्यों के द्वारा यह हिंसा अपने यहां अल्पमत किसी राज्य के नागरिकों या राज्य द्वारा अधिकृत प्रदेश की नागरिक जनसंख्या पर की जाती है राज्य की हिंसा के उद्देश्यों में अपने नागरिकों द्वारा अपने ही नियम की अनुपालना करवाना मुख्य उद्देश्य होता है | 


* अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से जुड़े कतिपय प्रमुख प्रश्न :-

                                                                                                                              अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की परिभाषा उसके 70 और प्रभावों को रेखांकित करना एक जटिल राजनीतिक कार्य अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का मूल्यांकन तब और भी अधिक कठिन हो जाता है जबकि अंतरराष्ट्रीय अन्याय के खिलाफ किसी भी प्रकार के संघर्ष को इस वर्गीकरण मे लाकर यह मांग की जाएगी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से जुड़े लोगों के साथ विशेष प्रकार का आचरण किया जाना चाहिए यह पिछले दिनों यह मांग भी जोर पकड़ती जा रही है कि हिंसा का प्रयोग करने वाले व्यक्ति के साथ चाहे वह  अंतरराष्ट्रीय अन्याय के खिलाफ ही क्यों ने लड़ रहा  हो सामान्य अपराधी के रूप में ही आचरण होना चाहिए | 

( 1 ) समुंद्री मार्गों पर डकैती | 

( 2 ) नशीले पदार्थों का गैरकानूनी यातायात | 

( 3 ) आणविक शक्ति का गैरकानूनी उपयोग | 

( 4 ) मुद्रा का गैरकानूनी हस्तातंरण | 

( 5 ) दास का व्यापार    | 

( 6 ) अश्लील साहित्य का वितरण | 


* अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी नियमों का विकास और उनका मूल्यांकन :-

 अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के शिकार कौन रहे हैं यह बहुत स्पष्ट होना चाहिए यह शिकार थे विमान और राजनयिक दोनों पर आक्रमण करते समय में यह स्पष्ट था कि इनके माध्यम से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समस्याओं के रेखाचित्र करने का अवसर प्राप्त होगा किंतु इन पर लगातार आक्रमण ने यह आवश्यकता स्पष्ट कर दी कि इनकी सुरक्षा के प्रश्न  को प्राथमिकता के आधार पर लिया जाना चाहिए अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से जुड़े नियमों के विकास में एक बात बहुत साफ होनी चाहिए कि यह समस्या बिल्कुल नहीं थी अतः कोई परंपरा या लंबा राजाचरण इस प्रश्न पर उपलब्ध नहीं था | 

( 1 ) टोक्यो अभि  समय 1963 | 

( 2 ) हेग अभि समय 1970 | 

( 3 ) मांटियल अभि समय 1971 | 

( 4 ) अंतरराष्ट्रीय व्यक्तियों के संरक्षण से संबंधित अभि समय 1973 | 

( 5 ) आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा का प्रस्ताव 1985 | 

( 6 ) दक्षस  द्वारा आतंकवाद के खिलाफ अभि समय 1987 | 

  * दक्षिण एशियाई देशों में 7 राष्ट्र :-

 भारत ,पाकिस्तान, बांग्लादेश  श्रीलंका,  नेपाल, भूटान,  और मालदीव,  राष्ट हैं | 

                                                    

                         



Wednesday, 13 November 2019

तृतीय विश्व शब्द का अर्थ व लक्षण एवं तृतीय विश्व के देशों के लक्ष्य और उपागम


* तृतीय विश्व का अर्थ तथा लक्षण:-

                                                                                तृतीय विश्व में गरीब व आर्थिक रूप से विकसित देश आते हैं यह देश इतनी अधिक संख्या में है कि यह कहना सरल होता है कि इनमें से कौन सा देश विकसित है और कौन सा नहीं तैरती है विश्व में महासागर के देश जापान ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड को छोड़कर एशिया के सभी देश तथा दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर सभी अफ्रीकी देश तथा कनाडा व अमेरिका के अलावा पश्चिमी गोलार्ध के सभी देश शामिल है कुछ सूत्रीकरण यूरोप के कुछ देशों को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को श्रेणी में रखते हैं इस प्रकार तृतीय विश्व की जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का 75% है सकल राष्ट्रीय उत्पादन के हिसाब से इसकी कुल वस्तुएं एवं सेवाएं विश्व में उत्पादन का केवल 20% प्रति व्यक्ति आमदनी के आधार पर तृतीय विश्व के लिए औसतन वार्षिक आय 2000 से कम नहीं होती जबकि प्रथम विश्व में द्वितीय विश्व में औसत वार्षिक आय से कहीं अधिक होती है हम उत्तर दक्षिण विवाद के बहुआयामी मुद्दों को समझ सकते हैं यदि हम इसकी नियंत्रण अविकसितता के उत्तरदाई कुछ तथ्यों को अलग करके देखें जो कि आज विश्व में कई देशों को दुर्दशा को दर्शाते हैं |

( 1 ) उच्च जनसंख्या वृद्धि |

( 2 ) आय का निम्न स्तर |

( 3 ) तकनीकी निर्भरता |

( 4 ) विकासशील देशों में दोहरापन |


( 1 ) उच्च जनसंख्या वृद्धि:-

                                                                अमीर  व गरीब देशों के बीच बढ़ते फासले के पीछे यह एक स्पष्ट कारण है अन्य चीजों के अलावा उच्च जन्म दर का अर्थ है कि विकासशील देशों में नौजवानों की जनसंख्या का अनुपात बहुत अधिक है तथा एक बड़े पैमाने पर बढ़ती शहरी जनसंख्या को उच्च स्तर की सुविधाएं प्रदान करने के अलावा हिंदी सॉन्ग को उत्पादकों को एक नई पीढ़ी तैयार करने के लिए अधिक संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है | 

( 2 ) आय का निम्न स्तर :-

                                                             यह प्रमुख लक्षण है जो कि तृतीय विश्व को प्रथम व द्वितीय विश्व से भिन्न करता है आय के निम्न स्तर की वजह से दोषपूर्ण आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियां उत्पन्न होती है लेकिन निम्न आय गरीब देशों को भविष्य में आर्थिक बचत करने से बचाती है यह माना जाता है कि जब एक बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र में लगे होते हैं तो वास्तव में वे पूरी तरह से रोजगारो की श्रेणी मैं नहीं आते हैं  कि श्रम शक्ति इस्तेमाल की सीमा रेखा से नीचे हैं यह सिर्फ कृषि क्षेत्र तक ही सीमित नहीं वरन उत्पादनो के सभी कारकों का कम प्रयोग गरीब देशों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख लक्षण है सिंगर तथा अन्सारी का सुझाव है  कि आई वितरण काउच बढ़ती समानताएं तथा उपभोग में निवेश के प्रति रूपों में विकृतियां श्रम शक्ति के न्यूनतम प्रयोग के कारण प्रभाव है यह तत्व शिक्षा स्वास्थ्य परिवहन एवं ऋण सुविधाओं के क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश के लिए भी उत्तरदाई होते हैं देश के सामाजिक व आर्थिक ढांचे में पूंजी निवेश की कमी के कारण गरीब देश गरीबी रहते हैं तथा उनमें वे अमीर देशों के बीच फासला बढ़ आता रहता है | 

( 3 ) तकनीकी निर्भरता :-

                                                                    विकासशील देश अपने संसाधन निधि के लिए उचित  स्वदेशी तकनीकी के विकास में योग्य नहीं सिद्ध हो पाए हैं तकनीकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे अमीर देशों पर आश्रित रहते हैं यह गरीब देशों में सबसे गरीब देशों के लिए एक सत्य है |  तथा तृतीय विश्व के अपेक्षाकृत धनी देशों के लिए भी एक सत्य है इसमें तेल निर्यात देश भी शामिल हैं  जिनकी अविकसित तकनीकी सामाजिक व आर्थिक वृद्धि व परिवर्तनों के मुख्य बाधक हैं तकनीकी विकास के असंतुलनो को निम्नलिखित रुप में उल्लेखित किया जा सकता है विज्ञान में तकनीकी पर पूरे विश्व में काव्य अमीर देशों के अंदर ही होता है तथा इन देशों की परिस्थितियों तथा साधन नीति के अनुकूल प्रणालियों द्वारा शोध व विकास इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए ही निर्देशित होते हैं यद्यपि गरीब देशों की समस्या उस प्रकार की नहीं है उदाहरण के लिए शोध की आवश्यकता उन सरल उत्पादकों के नमूने तैयार करने छोटे बाजारों के लिए उत्पादन विकास तथा अनुवृत्ति उत्पादकों के नए प्रयोगों के विकास व स्वरूप में सुधार करने के लिए होती है तथा सबसे अधिक शोध की आवश्यकता उत्पादन व्यवस्था के विकास करने के लिए होती है जो कि उनकी प्रचुर  श्रम शक्ति का प्रयोग करने के लिए होती है इसके बजाय विकसित देशों में आधुनिक हथियारों अंतरिक्ष शोध अनुसार आधुनिक उत्पादकों ऊंचाई वाले बाजारों का निर्माण तथा निरंतर रूप से उन प्रक्रियाओं की खोज पर अधिक जोर दिया जाता है   | 

( 4 ) विकासशील देशों में दोहरापन :- 

                                                                                    कुछ मिलाकर विकासशील देशों के सामाजिक व आर्थिक ढांचे में दोहरा पन पाया जाता है अधिकांश भारतीय विश्व के देशों में एक विशाल में निष्क्रिय क्षेत्र पाया जाता है जो कि एक छोटे आधुनिक व औद्योगिक क्षेत्र से जुड़ा होता है जिसमें कृषि क्षेत्र से श्रम शक्ति व पूंजी के रूप में औद्योगिक क्षेत्र में संसाधनों की आपूर्ति की मुख्य कड़ी का काम करती है औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि ग्रामीण क्षेत्र में सद्श विकास की प्रक्रिया में ना तो कोई भूमिका ही आधा कर पाती है तथा ने ही निष्क्रिय क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर पैदा कर पाई है विकासशील देशों के आर्थिक ढांचे में दौरा पड़ने का कारण उनका उपनिवेश ही अतीत है जबकि केंद्रीय शक्तियां अपने को निर्मित वस्तुओं का उत्कर्ष उत्पादक समझती थी तथा उपनिवेश खाद्य पदार्थों में कच्चे माल के उत्पादन का महत्वपूर्ण माध्यम समझ जाते थे विकासशील देशों में बेरोजगारों की संख्या के अनुमान भिन्न-भिन्न है लेकिन सभी आंकड़े एक ही स्थिति को दर्शाते हैं कि श्रम शक्ति के क्षेत्रों में बेरोजगारों की संख्या नई नौकरियों से कहीं अधिक ज्यादा बड़ी है गरीब देशों की अमीर देशों पर तकनीकी निर्भरता इसी दुविधा का परिणाम है क्योंकि औद्योगिक देशों में आधुनिक तकनीकी का विकास श्रम शक्ति पर नहीं वरन पूंजी पर आधारित है जो कि बेरोजगारों की दुर्दशा में सुधार लाने के बजाय उसे और बिगड़ने में सहायक होता है | 

 उत्तरी भाग के देशों को दक्षिण भाग के देशों से उत्पादकों के निर्यात के फल स्वरुप निर्भरता ने इस दूसरे पर निर्भर रहने वाली व्याख्या के विकास की प्रक्रिया को जन्म दिया है जिसे दक्षिण भाग के देशों में उत्तरी भाग के देशों के साथ सौदेबाजी की क्षमता बढ़ी है विश्व पेट्रोलियम बाजार में तेल निर्यातक उत्पादन करने वाले देशों के संघ के प्रभाव में यह स्पष्ट रूप से दर्शाया है विकासशील देशों को आपस में व्यापारिक साझेदारी कमजोर सिद्ध हुई है यद्यपि उतरी बाग के बाजारों में सभी स्पर्धा करते हैं जी से दक्षिण भाग के देश सॉन्ग की एकता को खतरा तो पैदा होता रहता है पर साथ ही साथ उनकी आंतरिक के विभिन्न ताई और अधिक मजबूत होती है विकासशील देश उत्तरी भाग के देशों के साथ व्यापार करने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं जबकि विकसित देश आपस में भी व्यवहार करना पसंद करते हैं विकासशील देश वस्तुओं के अंतरराष्ट्रीय भावों को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि विकासशील देशों को विकसित देशों के उत्पाद को व सेवाओं की आवश्यकता कहीं अधिक होती है जबकि विकसित देशों को विकासशील देशों के उत्पादकों की आवश्यकता नहीं होती है | 

* तृतीय विश्व के देशों के लक्ष्य :-

                                                                     तकनीकी निर्भरता एक ऐसा कारण है जिसके फल स्वरुप विकासशील देशों की विश्व में विकास की प्रक्रिया में स्थिति सबसे नीचे बनी रहती है श्रृंगार तथा अंसारी का तर्क है यदि तकनीकी के क्षेत्र में अंतर को खत्म नहीं किया जाता तो विकासशील देशों की अमीर देशों की अर्थव्यवस्था पर निर्भरता बनी रहेगी तथा किसी भी तरह की सहायता व्यापारिक रियासतें अनुदान तकनीकी सहायता तथा आकसिमक  दाम वृद्धि कतई लाभ प्राप्त नहीं हो सकते हैं | 

( 1 ) नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था :-

                                                                        इन समस्याओं से निपटने के लिए सन 1970 के दौरान विकासशील देशों की नीतियों के अध्यादेश सामूहिक रूप से राजनीतिक क्षेत्र में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मांग के रूप में जाने जाते हैं यह एक ऐसी व्यवस्था की मांग है जो कि तृतीय विश्व के देशों को वर्तमान आर्थिक अंतरराष्ट्रीय संबंधों के ढांचे में विचित्र से मुक्त करती है तथा विश्व के अमीर तथा गरीब देश के बीच उपनिवेशवादी वह नव साम्राज्यवादी संबंधों की निरंतरता वाले ढांचे से मूलभूत रूप से भिन्न प्रकार की व्यवस्था की कल्पना करती है तृतीय विश्व के देश वर्तमान व्यवस्था को अपने साथ शोषण का माध्यम समझते हैं | 

( 2 ) राजनीतिक स्वायत्तता :-

                                                                     समता की प्रेरणा अर्थव्यवस्था तक ही सीमित न होकर राजनीति क्षेत्र को भी सम्मिलित करती है तृतीय विश्व के देशों के नेता यह नहीं चाहते कि विभिन्न उच्च स्तरीय बैठकों में उनकी भागीदारी को नजरअंदाज किया जाए वह चाहते हैं कि उन्हें अपने विचारों से दबाव डालने का पूरा अवसर दिया जाए तथा हमेशा उनका विरोध नहीं किया जाए कहीं इस धारणा के विरुद्ध की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को वर्तमान श्रेणी बंद संगठन के रूप में स्थापित किया जाए जिसमें कि कुछ औद्योगिक व तकनीकी रूप से शक्तिशाली में अमीर देश तथा बल प्रयोग की क्षमता वाले देश नीतियां निर्धारित करें और जिनमें दूरदराज के देशों की आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करने में मदद मिले हैं | नव उपनिवेशवाद वे नव साम्राज्यवाद के अर्थों में तृतीय विश्व के देशों ने आश्रित संबंधों के अवशेषों को तोड़ने का प्रयास किया है अधिकांश देशों ने इस भय की वजह से पूर्व पश्चिम के संघर्ष से अलग रहने का दढ़  विश्वास भी प्रदर्शित किया है | 

( 3 ) गुटनिरपेक्षता :-

                                           तृतीय विश्व के देशों में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत सन 1955 से हुई थी जब अमेरिका तथा एशिया महाद्वीपो के 29  देशों ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का माध्यम ढूंढने के लिए बांडुंग मैं अपनी बैठक की थी सन 1966 में विश्व को विभाजित करने वाले विवादों पर हाथ से अपने करने के सिद्धांतों पर जोर डालते हुए अफगानिस्तान के एक नीति प्रवक्ता ने गुट निरपेक्षता की अवधारणा को परिभाषित किया अफगानिस्तान सभी देशों के साथ मंत्री पूर्ण संबंध रखना चाहता है तथा राजनैतिक बेचैनी संगठनों में में शामिल होने की नीति अपनाना चाहता है निरपेक्षता के सिद्धांतों का पालन हमारे देश के दिया अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णय लेने का मुख्य आधार होगा | 

                                                                                       

पराराष्ट्रीयता, अंतनिर्भरता अर्थ एवं प्रकृति एवं अंतरराष्ट्रीय कानून एवं अंतर्राष्ट्रीय सरकारी संगठन


* पराराष्ट्रीयता का अर्थ :-

                                                          पराराष्ट्रीयता अथवा अधिराष्ट्रीयता की विभिन्न एवं जटिल परिभाषाएं दी गई है जिनसे पराराष्ट्रीयता की कुछ विशेषताएं स्पष्ट होती है  जैसे यह राष्ट्रीय सीमाओं के पार वस्तुओं सूचनाओं के विचारों का संचलन है | जिसमें सरकारी करता हूं कि ने तो महत्वपूर्ण प्रत्यक्ष सहभागिता होती है और न ही सरकारी नियंत्रण | पराराष्ट्रीयता संपर्क एक सरकार में एक गैर सरकारी विदेशी कंपनी के बीच हो सकता है और आवश्यक रूप से इसमें कम से कम एक पक्ष सरकार या अंतरराष्ट्रीय अंतर सरकारी संगठन नहीं होता है अत : पराराष्ट्रीय दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि संप्रभुता राष्ट्रीय सीमाओं के विचार व विश्व व्यवस्था में सरकारों के मध्य अंतर संबंधों का महत्व पहले जैसा नहीं रह गया है प्रत्येक राज्य अधिक वित्तीय भेद्य बना है और बाह्य प्रभाव के लिए खुल गए हैं घरेलू राजनीति में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मध्य अंतर की रेखाएं भी सीन होती जा रही है भेद्यता एवं संबंधों के इस नए प्रतिमान में गैर राज्यीय  कर्ताओं की भूमिका विशेषकर अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों की सहभागिता मैं भारी वृद्धि हुई है राज्य सरकारों को अनदेखा कर सीधे घरेलू पर्यावरण पर प्रभाव डालने वाली अंत क्रियाएं भी बढ़ी है एवं जटिल भी हुई है उप राष्ट्रीय और राज्य अंतर्गत विभिन्न हित समूह द्वारा राज्य सरकार को अनदेखा कर राज्येतर संबंध स्थापित करने की प्रवृत्ति भी बड़ी है गैर सरकारी संगठन एवं उप राष्ट्रीय करता राज्य रूपी कर्ताओं से बहुत भिन्न होते हैं और राज्य ही कर्ताओं के स्वतंत्र व्यवहार भी करते हैं कुछ विद्वानों का तो तर्क है कि विश्व में प्रभाव हुए प्राधिकार का स्पष्ट पदसोपान नहीं है राज्य को सर्वाधिक शक्तिशाली और उप राष्ट्रीय कर्ताओं को कम शक्तिशाली नहीं माना जा सकता है और इसी कारण से सदैव ही राज्य को बहुराष्ट्रीय कंपनियों या अन्य समूह के ऊपर नहीं रखा जा सकता है इस पराराष्ट्रीय दृष्टिकोण के अनुसार गैर राज्यकर्ता अंतरराष्ट्रीय राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं  किसी राज्य की घरेलू अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती है और किसी राज्य की घरेलू आरती नीतियां व अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर सकती है इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था घरेलू राजनीति में अंतरराष्ट्रीय राजनीति घरेलू अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती है इस अंत निर्भरता से रिजिंस के द्वारा एवं राज्य वे गैर राज्यीय कर्ताओं की अंत की रिया से भी सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है | 


* विश्व स्तर पर पराराष्ट्रीय अंतक्रियाओ के परिणाम :-


 ( 1 ) पराराष्ट्रीय संबंधित विभिन्न कर्ताओं के मध्य दृष्टिकोण में परिवर्तन लाता है सामाजिक एवं सांस्कृतिक बंधनों को समाप्त कर पूर्वाग्रहों को समाप्त कर समझ में दृष्टिकोणो  में नमनीयता  उत्पन्न करता है   | 

 ( 2 )  यह अंतरराष्ट्रीय बहुलवाद को प्रोत्साहित करता है घरेलू राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मध्य संबंध जोड़ता है नितिन निर्णय निर्माण प्रक्रिया में अधिक हितों को संबद  करता है अधिक राष्ट्रीय अभिजन विषय के दूसरे अभी जनों के संपर्क में आते हैं | 

 ( 3 )  पराराष्ट्रीय संपर्क पर इस पर अब शिक्षाओं को प्रदर्शित करता है और दीर्घकाल में अंतर सामाजिक विवादों के कुछ कारणों को दूर कर सकता है अन्य समाजों पर उनकी उत्पादकता और निर्माण सकती कि उनकी अद्वितीय पर विश्वास उत्पन्न किया जा सकता है  | 

 ( 4 ) परा राष्ट्रीयता अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के उन भागों पर भी अधिकारी प्रभाव डालती है जो राज्य केंद्रित बने हुए हैं विशेषकर व्यक्ति के मध्य संबंधों में स्थायित्व लाकर अंतर सामाजिक निर्भरता में वृद्धि कर सरकारों के शांतिपूर्ण संपर्कों में वृद्धि कर और प्रभाव के नए क्षेत्रों को विकसित कर | 

( 5 ) पराराष्ट्रीय संबंधों के  संस्थानीकरण से नये प्रभावी स्वायत्त या अर्द स्वायत कर्ताओं के अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं में विकसित होने की संभावना होती है |   

* बहूकेंद्रवादी  मान्यताएं :-

( 1 ) गैर राज्यीय कर्ता अंतरराष्ट्रीय संबंधों में महत्वपूर्ण करता है और उनके महत्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती जिस प्रकार अंतरराष्ट्रीय संगठन स्वयं भी स्वतंत्र कर्ता के रूप में कार्य करते हैं | 

( 2 ) दूसरी मान्यता के अनुसार राज्य एक ही कार्यकर्ता नहीं है और यथार्थ वादियों द्वारा ऐसा सोचना राज्य अंतर्गत राजनीति के सारे को छिपाना है राज्य की कल्पना सदैव सुसंगत तरीके से सोचने वाले निश्चयात्मक प्राणी  के रूप में करना भी कल्पना के सिवाय कुछ नहीं है | 

( 3 ) बहूकेंद्रवादी दृष्टिकोण राज्य को विवेकशील करता नहीं मानते हैं विखड़  राज्य की कल्पना के तार्किक रूप के अनुरूप यह मान्यता है कि विदेश नीति निर्माण प्रक्रिया विभिन्न कर्ताओं के मध्य संघर्ष सौदेबाजी वे समझौते का परिणाम है | 

*: अंतरनिर्भरता का अर्थ :-

                                                       अंतनिर्भरता सभी व्यवस्थाओं की विशेषता है |  विश्व राजनीति को भी व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है एक राज्य और उसकी विदेश नीति प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय राज्यों में अन्य अंतरराष्ट्रीय कर्ताओं की व्यवस्था एवं उनकी परस्पर संबदता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए इसके अंतर्गत विभिन्न तत्वों के वितरण सम्मिलित हो सकते हैं जिस प्रकार की यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाए की संपत्ति अथवा सैनिक क्षमता सभी राज्यों के मध्य किस प्रकार वितरित है व्यवस्था आधारित चिंतन पूर्णता में विश्वास करता है तथा विभिन्न कर्ताओं के मध्य अंत क्रिया के प्रारूप को रेखांकित करना चाहता है | 

* अंतनिर्भरता से तात्पर्य :-

                                                        व्यवस्था के भाग या राज्य में हुई कोई घटना या परिवर्तन के परिणाम स्वरूप व्यवस्था के अन्य भागों में राज्यों में भी कुछ परिवर्तन आवश्यक होना | 

* अंतरनिर्भरता में वृद्धि कारक :-

                                                              अंतरराष्ट्रीय राजनीति में द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत अंतनिर्भरता के तत्व को महत्व दिया गया हालांकि अंते नर्भरता का तत्व पूर्व में भी विद्यमान था इस प्रकार अंत्य निर्भरता की स्थिति में उस स्थिति की  संज्ञानता दोनों का ही उल्लेख महत्वपूर्ण है इसी प्रकार कुछ स्थितियां तभी नहीं उत्पन्न हुई है विशेषकर कुछ प्रायोगिक की विकास हो जिस प्रकार आणविक शक्ति के विकास में मां शक्तियों की सैनिक अंतनिर्भरता व सैन्य भेद्यता  को बढ़ा दिया है | इसी प्रकार संचार भी आवागमन ने व्यक्ति की अन्य अंतक्रियाओं की क्षमता में वृद्धि की व इस प्रकार की अंत क्रियाओं के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने के स्त्रोत में भी वृद्धि हुई आज दूर स्थित देशों में होने वाले क्रियाकलाप भी व्यक्ति देख सकता है | 

*: अंतरराष्ट्रीय कानून एवं अंतर्राष्ट्रीय सरकारी संगठन:-

                                                                                                                    विश्व की वर्तमान स्थिति में परा राष्ट्रीय प्रकृति के मुद्दों विषयों एवं समस्याओं में नियंत्रण वृद्धि हो रही है इसके समाधान के लिए विभिन्न राज्यों का सहयोग आवश्यक है राज्य राष्ट्र हित में सामान्यतः कार्य करते हैं किंतु पारा राष्ट्रीय प्रकृति की समस्याओं के कारण उन्हें सामूहिक दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखकर कार्य करना विषय के राज्यों के मध्य सहयोगात्मक अंतः क्रिया के लिए आवश्यक यंत्री विधि के रूप में अंतरराष्ट्रीय कानून विद्यमान है सामान्य थे अधिकांश राज्य अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करते हैं अंतरराष्ट्रीय कानून राष्ट्रीय कानूनी की ही भांति राज्य के स्वेच्छिक व्यवहार पर बाध्यताये आरोपित करता है फिर भी अंते निर्भरता के कारण और व्यक्तियों वस्तुओं सेवाओं में सूचना के सुगम्य आधार प्रदान के लिए राज्य अंतरराष्ट्रीय कानून से व्यवहार को नियंत्रित करना अपने हित में मानते हैं अंतरराष्ट्रीय सरकारी संगठनों की संख्या में वृद्धि वर्तमान व्यवस्था में अंतरराष्ट्रीय कानून के बढ़ते महत्व का एक स्त्रोत है | 

Tuesday, 12 November 2019

प्रमुख भारतीय मुस्लिम राजनीतिक विचारक एवं परंपरागत मुस्लिम राजनीतिक विचारधारा



* प्रमुख मुस्लिम विचारकों के वैचारिक पक्षों की विवेचना:-

                                                                                                                                   हुमायूं कबीर  के अनुसार लगभग हजार वर्षों के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक पारंपरिक संपर्क के उपरांत भी मुसलमान अपने व्यक्तित्व की पृथकता को समाप्त नहीं कर पाये | एक अन्य लेखक ने भी यह विचार व्यक्त किए हैं कि मुसलमान पूरे तौर से वर्तमान प्रजातंत्र व्यवस्था के बराबर के साझीदार नहीं बन पाए हैं और उनके हीन भावना आज भी विद्यमान है भारतीय धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप जानने हेतु मुस्लिम राजनैतिक मान्यताओं का ज्ञान आवश्यक है | भारतीय जनसंख्या का लगभग 10% सबसे बड़ा अल्प वर्ग मुसलमानों का है संसार के लगभग 28 देशों में जहां-जहां मुसलमान बसे हैं उनमें से इंडोनेशिया बंगाल देश के पश्चात तीसरी सबसे बड़ी जनसंख्या भारतीय मुसलमानों की एक कर्मा अनुसार पाकिस्तान की जनसंख्या भारत के पश्चात आती है | वैसे तो किसी भी मुस्लिम विचारों को राजनैतिक चिंतन कहना कठिन है क्योंकि अधिकतर नेताओं व विचारकों ने परिस्थिति वंश अपने विचार व्यक्त किए हैं | मुख्य बात तो यह है कि वर्तमान मुस्लिम विचारधारा में हमें धर्म के राजनीति पर व्यापक प्रभाव एवं धर्म निरपेक्षता उदारवाद, तर्क, आधुनिकतावाद आदि तथ्यों का प्राय:अभाव ही  मिलता है | हम मुस्लिम राजनीतिक विचारधारा का वर्ण 19वी एवं बीसवीं शताब्दीयों के प्रमुख विचारकों के  प्रतिनिधि विचार की के आधार पर करेंगे | अबे मुस्लिम राजनीति विचार आज भी गतिमान तथा विकसित विषय है इस विचारधारा की मुख्य समस्या इसके आधुनिकीकरण करने की है यदि सर सैयद का पुनर्जागरण संबंधी प्रयोग सफल हो जाता तो संभवत इसके स्वरूप कुछ और ही होते मुस्लिम उदारवाद में यद्यपि धर्म और राजनीति को पृथक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया | सर सैयद ने राष्ट्रवाद की भी कल्पना की किंतु राष्ट्रीय कांग्रेस संस्था का विरोध भी किया बीसवीं शताब्दी में विकार उल मुल्क, मौलाना मोहम्मद अली,  मौलाना आजाद आदि ने मुस्लिम,   उदारवादी विचारों में अभिवृद्धि की | विशेषकर आजाद ने राष्ट्रवाद प्रजातंत्र और समाजवादी विचारों का प्रतिपादन किया फिर भी मुस्लिम समाज को भी अपने विचारों के अनुरूप बनाने में पूर्णतया सफल नहीं हो  सके | 

स्वतंत्र भारत के चिंतन में जहां एक और मुस्लिम समाज में अपने आप को राष्ट्रीय धारा में समाए जाने की भावना है वहां दूसरी ओर वे हिंदू बहुसंख्यक वर्ग के प्रभुत्व से संशकित हो अपनी पृथकता को बनाए रखे हैं जिसका उदाहरण उसके परंपरागत व्यक्तिगत विधि से चिपके रहने की भावनाएं इसके अतिरिक्त यदा -कदा होने वाले संप्रदायिक दंगों से भी मुसलमानों में धर्मनिरपेक्षता अथवा प्रजातंत्र के विचारों को ठेस पहुंची है | भारतीय मुस्लिम राजनीतिक चिंतन का आधार कुरान व हदीस पर  ही है किंतु फिर भी प्रति विचारक ने इन्हें परिस्थिति में अपनी मान्यता के आधार पर अपने ही दृष्टिकोण से इन्हें प्रस्तुत किया है | 

* परंपरागत मुस्लिम राजनीतिक विचारधारा :-

                                                                                                         इस्लाम का भावार्थ ईश्वर के प्रति समर्पण है शाहरस्तानी ने पैगंबर मोहम्मद साहब के एक संवाद के प्रसंग में काहे की इस्लाम ईश्वर वे उसके पैगंबर के प्रति आस्था पांच बार नमाज पढ़ने दस दिन रमजान में रोजे रखने तथा मक्का की हज यात्रा में निहित है  परंपरागत मुस्लिम राजनैतिक विचारधारा पूर्णतः मजहब पर ही  आधारित है बिना ईश्वर में पूर्ण आस्था के किसी प्रकार की मुस्लिम राजनीति कल्पना संभव नहीं हो सकती कुरान की शहादत के अनुसार मनुष्य के सामाजिक एवं राजनीतिक संबंधों का निर्माण व्यक्ति व ईश्वर के मध्य एक समझौते निसाक पर आधारित है | इस्लाम की यह मान्यता है कि बिना ईश्वरीय कृपा के मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना भी संभव नहीं है तथा बिना ईश्वर में आस्था रखें किसी भी प्रकार के सामाजिक स्वरूप की स्थापना भी नहीं हो सकती इस्लाम के मतानुसार ईश्वर एक है तथा मोहम्मद उनके पैगंबर के रूप में है तथा पुरानी सूर्य वाक्य के रूप में मुसलमानों के लिए सर्वमान्य है | इस्लामा अनुसार ईश्वर के प्रति आस्था रखने वालों के द्वारा आदर्श समाज उम्मा की स्थापना होती है यह उम्मा सामूहिक मातृत्व की भावना पर आधारित होते हुए भी इसकी शक्ति के स्त्रोत को ईश्वर आज्ञा में ही स्वीकार किया गया है | 

* इस्लामी विचारधारा के चार परंपरागत स्त्रोत :-

      ( 1 ) कुरान | 

     ( 2 ) हदीस  | पैगंबर साहब द्वारा प्रतिपादित कहावतें परंपरा रीति-रिवाज आदि | 

     ( 3 ) इज्मा  ( विभिन्न उलमा ओ अर्थात धर्म - विदो की सर्वे सम्मतियाँ ) तथा | 

     ( 4 ) कियास | ( विभिन्न कानूनी तार्किक के मान्यताएं एवं न्याय संबंधी विचार ) 

 इस्लाम में परंपरागत राजनीति विचारधारा को मूल्य थे कुरान सुन्ना  पैगंबर के आदर्शवादी व्यवहार एवं शरिया  पर ही आधारित है इस्लाम ने नैतिक एवं राजनीति विचारधारा के अतिरिक्त एक नवीन सामाजिक व्यवस्था को भी जन्म दिया मुस्लिम परिवार पितृ -प्रधान  बहुविवाहवादी बने  |  स्त्री की अपेक्षा पुरुष को अधिक महत्व दिया गया विवाह एक समझौते के रूप में स्वीकार किया गया तथा चार पत्नियों को रखने तक की अनुमति दी गई यद्यपि यह व्यवस्था आजकल मिटती जा रही है अनेक प्रतिबंधों के विकसित होने के उपरांत भी आज भी पति इकतरफा रूप से पत्नी को तलाक दे सकता है मुस्लिम उत्तराधिकार व्यक्तिगत विधि के अनुसार पुत्री के 1/3 अथवा पुत्र के भाग का आधा विधवा को1/8 शीशा प्राप्त करने का प्रावधान है | 


  * भारत तथा इस्लाम :-

                                                      16 जुलाई 1622 ईस्वी हिजरी सन का प्रथम दिवस है तत्पश्चात जिस तीव्र गति  से संसार में इस्लाम का प्रसार  हुआ है भारत में मुस्लिम आबादी इतिहास की एक महान घटना है स्मरणीय तथ्य यह है कि जिस रूप में इस्लाम भारत में आया वहां उसका मौलिक स्वरूप नहीं था राजतंत्र शान शौकत  विलासिता दास प्रथा आदि का विकास हो चुका था भारत में राजा को ईश्वर के प्रतिनिधि के स्वीकार किया गया तथा सबल केंद्रीय सरकार की स्थापना की गई जिसमें जनता के किसी भी प्रकार के कोई अधिकारों का कैसा भी अस्तित्व नहीं था तथा कठोर सैनिक वाद के आधार पर मुस्लिम राजनैतिक व्यवस्था का संचालन किया गया अकबर महान जैसे शासनकाल के अपवाद के अतिरिक्त सारे ही मुस्लिम काल में विशेषकर बहुसंख्यक हिंदू जनता के लिए तो किसी भी प्रकार के राजनैतिक अधिकारों का अस्तित्व ही नहीं था कुछ लेखकों ने मुस्लिम राजतंत्र के शरीयत पर शासन तंत्र के संचालन के तर्क को प्रस्तुत कर भारतीय मुस्लिम शासन को सीमित प्रजातंत्र के स्वरूप बताया है किंतु यह वास्तविकता नहीं है क्योंकि मुसलमान राजाओं की शक्ति के मंत्री परिषद दरबारी और यहां तक कि उलमा वर्ग भी सीमित नहीं कर सके इस संदर्भ में अलाउद्दीन खिलजी का कथन राजा की स्थिति का सही रूप चित्रित करता है कि मैं नहीं जानता है कि क्या वैध या अवैध है  | 

* प्रमुख मुस्लिम राजनीतिक विचारक :-

 ( 1 ) सर सैयद अहमद खान और आधुनिकता ( 1817 - 98 ): -

                                                                                                                                                   सर सैयद अहमद खान भारतीय मुसलमान सुधारकों ने महानतम थे वे पूर्णतया अपने युग के शिशु थे मुस्लिम समाज में पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित होकर उन्होंने उदारवादी दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्जागरण किया उन्होंने नई का अर्थ केवल राजनीतिक ही नहीं वरन सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण के रूप में किया उनका तत्कालीन मुस्लिम समाज से आग्रह था कि वह बदलते हुए वातावरण को समझे तथा युग की चुनौती स्वीकार करके अपने जीवन दर्शन को यह परिवर्तित करें सर सैयद अहमद वर्तमान मुस्लिम राजनैतिक सामाजिक विचारधारा के अग्रदूत थे यद्यपि मुस्लिम नवजागरण का शुभारंभ अकबर महान ने किया था मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात शाह वली उल्लाह तथा उनके मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र शाह अब्दुल अजीज तथा शिष्य मौलाना सईद अहमद ने इस कार्य को गतिमान किया इनका ध्यान में छात्रा अक्टूबर 1817 को दिल्ली के एक सम्मानित परिवार में हुआ पैगंबर मोहम्मद साहब इन की वंशावली से संबंधित थे मुगल सम्राट शाहजहां के काल में इनके पूर्वज भारत आए इनकी प्रारंभिक शिक्षा परंपरागत आधार पर ही हुई थी प्रमुखता उनका जीवनकाल चार भागों में विभाजित किया जा सकता है | 

 जीवन काल भागों में विभाजित :-

 ( 1 ) शिक्षा दीक्षा काल ( 1817 -1837 ) 

 ( 2 ) ईस्ट इंडिया कंपनी में सफलतापूर्वक सेवा काल ( 1837 - 57 ) 

 ( 3 ) ( 1857 - 1877 ) काल में उन्होंने न्यायिक पद पर कार्य किया तथा मुस्लिम शिक्षा के संबंध में अथक  चिंतन किया ( 18 69 - 70 ) मैं वे इंग्लैंड गये | 

 ( 4 ) अपने अंतिम चरण ( 1877 - 1898 ) मैं उन्होंने अपना संपूर्ण समय धार्मिक राजनैतिक तथा शैक्षणिक कार्यों में लगाया  | 

( 2 ) मौलाना मोहम्मदअली तथा मुस्लिम अध्यात्मवाद ( 1878 - 1931 ) :-

                                                                           उन्होंने एक और जहां आधुनिकता वे वैज्ञानिकता का समर्थन किया वह दूसरी ओर इस्लामी मूल्य व मान्यताओं के प्रति आस्था को बनाए रखने पर बल दिया एक प्रकार से वह भी अलीगढ़ आंदोलन के प्रभाव स्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के चिंतन थे उनके द्वारा स्थापित जामिया मिलिया की स्थापना से उनकी अलीगढ़ स्वरूप के विरुद्ध कल्पना करना उचित नहीं होगा लेकिन वह पाश्चात्य सभ्यता के अंधविश्वास नेता के विरोधी थे एक और तर्क सत्य की खोज के समर्थन थे वाह दूसरी और परंपराओं के विरुद्ध के हामी नहीं थे उनका विश्वास था कि शिक्षा राज्य द्वारा संचालित नहीं होनी चाहिए यह थे पी उन पर सर सैयद का गहरा प्रभाव था और इसलिए उन्होंने जामिया मिलिया के माध्यम से शिक्षा में आधुनिकतावाद और परंपरावाद समन्वय किया | 

( 3 ) मोहम्मद इकबाल ( 1876 - 1938 ) :-

                                                                                               बोलते एक दार्शनिक और यह कवि के रूप में इकबाल इकबाल के गायक थे तथा उन्होंने पतन की दलदल से मुसलमानों को निकाल कर उनके आत्मा विश्वास आत्मा सम्मान तथा सृजनात्मक संघर्ष के पथ पर आगे ले चलने का प्रयास किया वह पूर्णत :  इस्लामी परंपरावादी थे तथा कुरान उनकी प्रेरणा का स्त्रोत था उनकी मान्यता थी कि शताब्दियों की परंपरा और विवादों के घेरे में इस्लाम के मौलिक स्वरूप को धूमिल कर दिया है तथा उन्होंने बेचैन मुसलमानों में इस्लामिक चेतना के आधार पर नव संदेश दिया | 

महात्मा गांधी का विश्व दृष्टिकोण एवं आंतरिक स्वराज्य तथा सामाजिक सदभाव तथा शैतानी आधुनिक सभ्यता


* भारतीय चिंतन परंपरा तथा हिंदू विश्व दृष्टिकोण का बोध:-

                                                                                                                                     महात्मा गांधी ने अपने सामाजिक दर्शन अथवा विश्व दृष्टिकोण पर कोई विधान नहीं रचा व्यक्ति के समाज से संबंध की समस्या उनके चिंतन व्याकरण में केंद्रीय इस्पात का उद्देश्य व्यक्ति व समाज विशेष गांधी जी के विचारों का परीक्षण है यह परीक्षण गांधी जी के लिखे हुए बोले शब्दों तथा उनके कर्म के आधार पर किया जाएगा उन्होंने किसी भी श्नण  यह नहीं बुलाया कि व्यक्ति अनिवार्य रूप से एक सामाजिक प्राणी है व्यक्ति व समाज के विषय में गांधी जी के विचार उनके धार्मिक विश्वास वे स्वयं समाज के विषय में गांधी जी के विचार उनके धार्मिक विश्वास में गहरे पैठे हुए है | इसलिए वे जब व्यक्ति के सामान्य प्राणी होने की बात करते हैं तो इस संदर्भ में वह व्यक्ति की सृष्टि तथा ब्रह्मांड से अनिवार्य एकता की चर्चा करते हैं क्योंकि उनका कहना है कि हम एक ही ईश्वर से पैदा हुए हैं और ऐसा होने के कारण किसी भी रूप में प्रकट समस्त जीवन अनिवार्यता एक हैं यह स्थिति हमें तुरंत उस उपनिषद के चिंतन से अंतरंग कराती है जिसमें ईश्वर तथा वैयक्तिक आत्मा को तत्वमसि  के रूप में उद्घाटित किया गया है | यह गांधीजी के विश्व दृष्टिकोण की मूल आत्मा है जो समाज प्रकृति तथा अंतिम यथार्थ से व्यक्ति के संबंधों की अवैध विचारधारा पर आधारित है | गांधीजी के विश्व दृष्टिकोण में हमारी समझ के क्षितिज हमारे समस्त विश्वासों व्यवहारों बल्कि समस्त जीवन की सीमाओं तक फैले हुए यह विस्तार ने केवल मानव जीवन बल्कि समस्त संवेदन समर्थ जीवो क्योंकि समस्त जीवन एक ही सर्वभौमिक स्रोत से प्रकट होता है इस विश्व दृष्टिकोण में जो कुछ सत्य अथवा वास्तविक हैं वह घटनाओं की प्रवृत्ति से अभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है सत्य का अभिप्राय उस तत्व से जो वास्तविक में घटित से संगत हैं यह दृष्टिकोण चीज या तत्व को उस व्यक्ति के संबंध में देखता भागता है जिसे भाग अथवा अंश के रूप में स्वीकार किया जाता है इस प्रकार गांधीजी इतिहास के प्रति आभार शुद्ध रूप से अति सरल वादी दृष्टि अपनाते हुए उस राजाओं महाराजाओं के क्रियाकलापों का कालक्रम एक वरदान मानते हैं उस दुनिया की लड़ाई य का विलय स्वीकार करते हैं तथा उसे प्रत्येक अवरोध का एक ऐसा लेखा-जोखा मानते हैं जो आत्मबल अथवा प्रतिबल की सेज क्रियाशीलता को प्रभावित करता है इतिहास की अपेक्षा करते सजनवा दी व्याख्या का मूल सवार उसके इस विश्वास पर आधारित है कि मानव समाज एक के विकास से अध्यात्म के संदर्भ में यह पलवल उनका यह तर्क है कि यदि उत्कर्ष नहीं होगा तो अपरिहार्य रूप से अब कर्ज होगा गांधी जी का यह मत है कि मानव इतिहास में प्रगति बहुत गर्मी है प्रेम के परिचालक से संभव हुई है आपने सार में समस्त जीवन एक है तथा ब्रहमांड तथा मानवता संग्रह संपूर्ण गांधीजी के अनुसार पारंपरिक इतिहास का मूल तत्व केवल नाम रुपए और ऐसा होने के कारण घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करने वाला इतिहासकार मानव इतिहास के सकारात्मक तथा सर्व भौतिक लक्ष्य से विचलित हो जाता है | 

* अंतर्निर्भरता तथा आत्म - निर्भरता :-

                                                                                          मानवता की सेवा का यह विचार ने केवल सभी व्यक्तियों की अपरिहार्य असिमता की  अवधारणा से पैदा हुआ है बल्कि वे इस भूमिका से भी परगट है कि व्यक्ति का विकास प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि उसी व्यक्ति से अंतत समाज बनता है इस संदर्भ में गांधी जी की 6 दष्टि में व्यक्ति तथा समाज के सामान्य को उन से केंद्रित केंद्रों के रूप में दर्शाया गया है जिसमें जीवन को ही ऐसा शीर्षक नहीं होगा जो नीचे के आधार पर टिका हुआ हो जीवन एक ऐसा सामूहिक व्रत होगा जिसका केंद्र बिंदु व्यक्ति गांव के बहुत केंद्रों के लिए मिटने को सदैव तत्पर होगा जीवन को कठोर विभाजक खंडों में नहीं बांटा जा सकता गांधीजी की यह दर्द मान्यता थी कि सभी व्यक्ति भाई भाई हैं और उन्होंने सभी में इस भ्रातृत्व भाव को विस्तार दिया जहां बल सदैव व्यक्ति तथा समाज के बीच सहयोग पर दिया गया ने की संघर्ष और तनाव पर यह सद्भाव स्थापित किया जा सकता है समाज पर यह निर्भरता बंधन अथवा दास्तां नहीं है बल्कि वे तो मानवता की सेवा के आदर्श की सभी करती है इस सेवा की देश निर्मित सीमाओं के परे कोई हद नहीं है वे सीमित हैं इसके अतिरिक्त समाज पर निर्भरता से संबंधित गांधी जी का यह विचार उनके सच्चे लोकतंत्र के अंदर से भी जुड़ा हुआ है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति सभी को सम्मान मानते हुए उन्हें प्रेम के रेशमी जाल में लिपटा हुआ ग्रहण करता है गांधीजी ने अक्सर यह स्पष्ट किया है कि उनके द्वारा इंगित इस आदर्श प्राप्ति का मार्ग नैतिक तथा आध्यात्मिक अनुशासन से सुगम  होता है की आधुनिक सभ्यता में आध्यात्मिक विकास तथा नैतिक साध्य की इच्छा में क्या तत्व अथवा पर पर प्रवृत्तिया अवरोधक हैं है तथा हमारे समय के संकट के मूल में क्या है उनके अनुसार व्यक्ति पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अपनी सामाजिक निर्बलता के प्रति सचेत हो गया है वे निर्भरता की इस अनुभूति को सार्थक पूंजी के रूप में नहीं ग्रहण करता है | 

* आंतरिक स्वराज्य तथा सामाजिक सदभाव :-

                                                                                                            यह गांधीवादी योजना उनके स्वराज के सिद्धांत पर आधारित है जो कि अपनी व्यापक अर्थ व्यंजना में दूसरे देशों के वैशेषिक  विचारों तथा आदेशों के तीव्र प्रवाह  से स्वतंत्रता  का आग्रह करता है | मैं उन्हें केवल उतना ही स्वीकार करूंगा जितना कि मैं भारतीय संदर्भ में आत्मसात कर सकूंगा लेकिन मुझे उनके आधिपत्य को तो अस्वीकार करना ही होगा इसका अर्थ है आंतरिक इतिहास तौर तरीकों तथा शक्ति सामर्थ्य के बूते राष्ट्र निर्माण का प्रयास और इसलिए इसमें विदेशों विदेशी पूंजी तथा विदेशी प्रार्थी की से आयातित सांजो  सामान पर अत्यधिक निर्भरता से स्वतंत्रता  सम्मिलित हैं | सर्वोदय त्याग तथा सामाजिक सद्भाव पर गांधी जी द्वारा दिए गए बल के फलस्वरूप अनेक पर्यवेषक उन्हें व्यक्तिवाद का विरोधी मानते हैं दार्शनिक बी. के. मलिक ने वस्तुतः व्यक्तिवाद पर कुठाराघात कि गांधीजी की दृष्टि का स्वागत किया है और तंतुउपरांत उन्होंने भारतीय समूह सभ्यता तथा पश्चिमी मानववाद की दवेत हताशा का वर्णन किया है यह एक ऐसी हताशा थी जो गांधीजी के जीवन और निधन में प्रकट हुई और जिसे एक ऐसे युग का प्रारंभ हुआ जो इन विरोधाभासो  के परे था | स्वयं गांधी जी की अंतिम हताशा तथा निधन को इन विरोधाभासी सिद्धांतों की पारंपरिक हताशा  के प्रतीक रूप में ग्रहण किया जाता है इससे द्वैतवाद  पर बल देने के दौरान मलिक गांधी जी के जीवन तथा विचारों के अस्तित्व वादी पक्षों पर विचार नहीं कर सकते गांधीजी के अनुसार इस आतम सुधार की प्राप्ति व्यक्ति के अधिकार संबंधी किसी भी दावों से पहले अवश्य के एक बार ऐसा हो जाए तो संभवत व्यक्ति वे समाज के हितों में कोई संघर्ष ही नहीं प्रकट होगा इसके अतिरिक्त घर में भी समाज को एकता की ऐसी आवश्यक मात्रा उपलब्ध कराता है जिसमें हितों की विविधता समाहित होती है इस संदर्भ में गांधी जी की यह मान्यता है कि कोई व्यक्ति को मर्यादाओं से स्वतंत्रता का मार्ग चुनता है | 

* असिमता बनाम अलगाव :-

                                                              गांधीजी के जीवन के प्रति दृष्टिकोण का यह एक मौलिक प्रतिमान है | इसके साथ ही गांधीजी के उस विश्व दृष्टिकोण तथा सभी की एकता अवधारणा से भी जुड़ा हुआ है जो की हिंदू सांस्कृतिक परंपरा में रची पगी हुई है | गांधी जी का चिंतन भारतीय संगीत से तुल्य है जिसमें समस्त आरोह अवरोह तथा सुर -वैविद्य  एक ही राग से बंधे होते हैं और मूल सबर सदैव यथावत रहता है गांधीजी का मूल स्वर यह विश्वास है कि जीवन अपने शहर में एक है तथा सार्वभौमिक जीवन शक्ति तत्काल ई सर्वव्यापी तथा आत्मोत्कर्षकारी है | सभी मनुष्यों की सर्वव्यापी एकता के इस गांधीवादी विश्वास को अक्सर उस समय यह कसौटी पर कसा गया जब गांधी जी को वैयक्तिक क्रियाओं तथा सामाजिक व्यवस्था में अंतर्निहित संतों के व्यवस्थित होने से उत्पन्न संघर्षों की समस्याओं को झेलना पड़ा उस स्थिति में भी उनका यह दृढ़ मत तथा  विश्वास था कि आध्यात्मिक एकता हर हाल में एक ऐसी ठोस आधारशिला प्रदान करती है जो व्यक्तियों के चिंतन तथा कर्म को संबंधित करती हैं ऐसी पुनरावृति समस्याओं के समाधान के लिए गांधीजी के पास सत्याग्रह एकमात्र साधन था या यह स्पष्ट किया जा सकता है कि मालर्स की भांति गांधीवादी चिंतन का भी यह निहितार्थ था कि भारतीय समाज की व्याख्या के लिए एक विकसित सिद्धांत की आवश्यकता है मार्शल ने भी व्यक्ति के रूप में मनुष्य तथा समाज की अवधारणा के बीच सामंजस्य स्थापित करने की समस्या का सामना किया था उसका यह तर्क था कि समाज को एक अमूर्त निर्मित के रूप में नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि उस स्थिति में वह व्यक्ति के रूप में मनुष्य से संघर्षरत प्रथम व द्वितीय सत्ता के रूप में प्रकट होगा व्यक्ति के रूप में मनुष्य तथा प्रजाति के रूप में मनुष्य अलग नहीं है वस्तुतः मनुष्य वैयक्तिक मनुष्य है ही नहीं वह तो प्रजातीय प्राणी होते हैं सामाजिक होना इस प्रकार मनुष्य की एक अंतर्निहित विशेषता बन जाता है वही उसका जातिगत चरित्र प्रगट होता है अत मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के गुण धर्म को मार्शक में व्यक्ति की जातिगत प्रकृति माना है क्योंकि यह प्रकृति वास्तव में मनुष्य को समाज के सदस्य रूप में अंगीकार करती है इससे विभिन्न समाजों में अंतर करने की क्रिया जटिल हो जाती है क्योंकि सामाजिक प्राणी होने का गुणधर्म प्रत्यय मनुष्य में अंतनिहित है वे इसे समाज के सदस्य रूप में सहज प्रक्षेपित करता है तथा ऐसा करते हुए वे अपने सामाजिक अस्तित्व की पुष्टि करता है यह प्रजाति तथा समाज में एक ही काट मनुष्य की यह प्रतिमा मृत्यु द्वारा झकझोरी जाती है जो कि मनुष्य को यह व्यक्ति के रूप में अलग दर्शाती है | 

* शैतानी आधुनिक सभ्यता:-

                                                                   गांधीजी की चिंता का मूल के अंदर जाती है और यह विचार कि वे अपनी असिमता अक्षुण रखते हुए सभी की अंतिम निर्भरता के अनुरूप क्रियाशील हो वस्तुतः उसके आध्यात्मिक व्यक्तिवाद पर आधारित है गांधीजी के प्रतिकार का बिंदु यूरोपीय व्यक्तिवाद उतना नहीं है जितना कि यूरोपीय सभ्यताएं गांधीजी यूरोपीय सभ्यता के प्रतिरोधी हैं क्योंकि उसने अपने भ्रष्ट कारि प्रभाव से व्यक्ति की मानसिक तथा नैतिक उन्नति को अवरुद्ध किया है अपनी कृति हिंदू राज्य में गांधीजी दृढ़पूर्वक यह कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता ने व्यक्ति के दिल और दिमाग को आक्रांत  किया है तथा उसे कपड़ा मकान में फैक्टरी में कैद कर दिया है पश्चिम में औद्योगिक सभ्यता के प्रभाव में व्यक्ति पर जो कुछ भी घटित होता है उसकी व्याख्या किसी लेखक ने इस प्रकार की है जो कि औद्योगिक सभ्यता की उपज है तथा जो लाखों करोड़ों की पीठ पर केवल कुछ को चढ़ - बैठने का अवसर प्रदान करती है तथा संपत्ति के केंद्रीयकरण को बढ़ावा देती है गांधीजी कहते हैं एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि मशीनरी मानवता की समस्त जरूरतों को पूरा कर सकती है फिर भी उससे कुछ विशेष क्षेत्रों में उत्पादन तो शगन होगा यह तथा इससे भारी उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा | 

Monday, 11 November 2019

क्षेत्रीय सहयोग की मान्यता, क्षेत्रीय सहयोग की आर्थिक एवं तकनीकी कारणों पर आधारित प्रवृतिया


* क्षेत्रीय सहयोग की मान्यता:-

                                                                   क्षेत्रीय सहयोग की ओर स्पष्ट प्रवृतियो का इस तथ्य से मूल्यांकन किया जा सकता है कि राष्ट्र व्यवस्था परिवर्तन की स्थिति में है तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए प्रतिरूप उत्पन्न हो रहे हैं अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रवाद  तथा क्षेत्रीय व्यवस्था कर्मों के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं उदाहरण स्वरुप अमेरिकी देशों का संगठन, अटलांटिक संधि संगठन, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, पारंपरिक आर्थिक सहायता परिषद, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन, दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्र समुदाय, तथा अन्य | इस तरह के संगठनों को स्वयं  संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर मान्यता मिलती है द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद विश्व व्यवस्था में तनाव व्याप्त था शक्ति संघर्ष का स्वरूप भी बिंदास साथ ही साथ युद्ध अभिशप्त विश्व में जो चौमुख विकास की आवश्यकता थी इन्ही प्रसंगिक जरूरतों ने क्षेत्रीय सहयोग को आधार प्रदान किया / पर विरोधी विश्व में प्राकृतिक संसाधनों को यह करने की आवश्यकता थी इतने समय के बाद ऐसा प्रतीत होता था कि सदियों पुरानी राष्ट्र व्यवस्था क्षेत्रीय समूह की ओर विकसित हो रही है जिससे यह अधिकार विकल्प की संभावनाएं भी प्रतीत होती थी | 

* क्षेत्रीय सहयोग के उपागम:-

                                                               सिद्धांत कारों के दो प्रमुख समूह है पहले समूह के सिद्धांत कारों द्वारा शक्ति प्रतिक्रियाशील तथा राजनीति के विकसित वर्ग के नियंत्रण इत्यादि राजनीति चारों पर ध्यान दिया जाता है यह समूह बहू वार्ड तथा संघवाद जैसे दो प्रभावों से निरूपित किए जा सकते हैं दूसरा समूह सहयोग के आधार के लिए आर्थिक सामाजिक तथा तकनीकी कारकों पर केंद्रित है उनका मानना है कि यह कारक अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक परिवर्तन में सहायक होते हैं अब हम अंतरराष्ट्रीय एकीकरण की वैचारिक परंपराओं की विवेचना करेंगे जिन्होंने शिक्षाविदों तथा राजनेताओं को यह सम्मान प्रभावित किया है | 

( 1 ) संघवाद:-

                                    प्राचीनतम तथा सर्वोत्तम समझी जाने वाली परंपरा संघवाद एक विधि वादी उपागम है जो कि आवश्यक रूप से राज्य के प्रतिमान पर आधारित है इसका उद्देश्य एक आधी राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करना है जिसके पास सदस्य राष्ट्रों की सामूहिक सुरक्षा आंतरिक सुरक्षा तथा आर्थिक विकास जैसी जरूरतों की संतुष्टि के लिए पर्याप्त राजनीति सत्ता तथा बल प्रयोग की सकती हो तथा जो साथ ही साथ सहयोगी देशों को व्यक्तिगत पहचान तथा क्षेत्रीय स्वायत्ता बनाने के योग्य बनाए रे एकीकरण की प्रक्रिया के परीक्षण के लिए संघ वादी मुख्य रूप से शक्ति वे समझौते जैसे राजनीतिक तत्व पर विश्वास करते हैं स्थिति के विरुद्ध स्वरूप की विवेचना के बजाय इसको स्वीकार किया जाता है तथा इसकी हिमायत भी की जाती है | 

( 2 ) बहुलवाद :-

                                      पहले समूह का दूसरा उपागम संघवाद से कुछ पहलुओं  में भिन्न है एक ही काटते राजनीतिक समुदाय स्वतंत्र राज्यों की व्यवस्थाएं जो की बहू वादियों के मत में किसी अधिराष्ट्रीय सत्ता द्वारा शासित नहीं होती | इस स्कूल के मुख्य प्रतिपादन काल डायर्च के अनुसार यह मित्रता संचार व परस्पर संबंधों से इस हद तक बंधी होती है कि यह संघर्ष समाधान प्रक्रिया के रूप में इसके द्वारा गृह युद्ध या प्रथक वाद को रोकने की क्षमता पर निर्भर करती है यह राजनीति समुदाय की सफलता व्यापार के प्रतीरूप, जन गतिशीलता संचार तथा औपचारिक व अनौपचारिक दीक्षित वर्कर के परस्पर संबंधों जैसे कारकों वाले माध्यम पर टिकी होती है काफी हद तक इस तरह का आदान-प्रदान तीव्र स्थायित्व तथा परस्पर रूप से लाभप्रद हो तो यह हकीकत व्यवस्था की सूचना आत्मक बंधनों को मजबूत करते हैं तथा स्थाई तथा प्रभावी बनाते हैं सामान्यता एकीकरण की बहू वादी अवधारणा की अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा व शांति की प्राथमिकता तथा राजनीति का कूटनीतिक नीति वाद  संबंधों के साथ सहयर्च जैसे दो अत्यधिक महत्वपूर्ण आधार है नीति निर्धारकों में बहू वादी विचारधारा को आधी स्वीकार किया जाता है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था व स्थायित्व को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के साथ संयुक्त करती हैं | 

* क्षेत्रीय सहयोग के आर्थिक एवं तकनीकी कारको पर आधारित प्रवृतियां :-

                                                                                     आर्थिक एवं तकनीकी कार को पर जो डालने वाले दूसरे समूह के सिद्धांत का भी दो प्रवृत्तियों द्वारा निरूपित किए जा सकते हैं | 
   ( 1 ) संरचनावादी तथा |  ( 2 ) नवसंरचनावादी | 

( 1 ) संरचनावादी :-

                                             फंक्शनलिस्ट अंतरराष्ट्रीय समुदाय की गैर राजनीतिक  कार्यवाहियो पर अधिक जोर डालते हैं यदि व्यक्ति समूह या राज्य किसी उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तथा वह पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण है तो उन्हें उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग करने की जरूरत होती है जिसके फलस्वरूप ही यह प्राप्त हो सकता है यदि लक्ष्य पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण है तो वह एक दूसरे के साथ कार्य करेंगे तथा इस प्रक्रिया में दवदवो  का समाधान करेंगे इस व्यवस्था कर्म के तहत एकीकरण की प्रक्रिया सरकारों के बीच यदि राष्ट्रीय स्तर पर ही आरंभ की जा सकती है जो सीमाओं के ऊपर हितों के प्राकृतिक समय तथा क्रियात्मक संगठनों का निर्माण कर सकते हैं यह संगठन क्रियाशील शांति व्यवस्था या एक दूसरे पर आलिम होते हैं तथा सभी आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का दक्षता पूर्वक इस तरह समाधान करते हैं कि संघर्ष के लिए कदापि स्थान न रहे | जैसे संपादन करने वाले कार्यों का स्वरूप बदलता है वैसे ही ढांचे का विकास तथा रूपांतरण किया जा सकता है इस तरह के संगठन की सीमाएं राज्य द्वारा नहीं वरन कार्यात्मक ता के आधार पर निर्धारित की जाती है यह उल्लेख किया जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों के नमूने फंक्शनलिस्ट उपागम के आधार पर बनाए गए थे जिसमें युद्ध के दौरान संबंधित शक्तियों के बीच सहयोग के अनुभवों को भी स्वीकार किया गया था | 

( 2 ) नवसंरचनावादी :-

                                                   नवसंरचनावादी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक एकीकरण में प्रभाव सीएल यह अपेक्षाकृत एक नया उपागम है इसे यूरोपीय आर्थिक समुदाय से अधिक गति वे समर्थन मिला है पिछले दो दशकों के दौरान अमेरिका में राजनीतिशास्त्र विषय के विकास से इसके सैद्वांतिक व्याख्यात्मक ढांचे पर अधिक प्रभाव पड़ा है सन 1950 में यूरोप के कोयला तथा स्टील समुदाय का गठन इस उपागम को नजीर प्रदान करता है युद्ध की प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए भलाई पर अधिक जोर दिया जाता है | उनके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय की करण के प्रयासों ने बल वे और फिर आने की राजनीति को अनावश्यक किया है उनका मानना है कि हित समूह नौकरशाही तकनीकी नौकरशाहों तथा अन्य इकाइयों के पर्याय एकीकरण के माध्यमों का निर्माण करते हैं | इस प्रकार एकीकरण के सिद्धांत की व्याख्या से यह पता चलता है कि यद्यपि चारों उपागम में विश्लेषण के संबंध में विभिन्न दाएं रखते हैं परंतु यह कुछ हद तक की अनुपूरक होती है यह यथार्थ में विभिन्न पक्षों से संबंधों में राज्यों की वरीयता के बारे में सम्मान धारणाओं के बाल स्वरूप संघ वादी तथा बहु वादी विचारों के एकदम भिनन निष्कर्ष पर पहुंचते हैं | 


* अंतरराष्ट्रीय संबंधों का बदलता परिदृश्य:-

                                                                                                 विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है तथा उनकी क्रियाशीलता का दायरा भी तेजी से बदला है इस विकास के मुख्य कारणों में अंतरराष्ट्रीय कार्य वालों का केंद्र बिंदु इस प्रक्रिया में यूरोप से हट कर दो महा शक्तियों की तरफ तथा आर्थिक रूप से अफ़्रीका एशिया तथा लेटिन अमेरिका की तरफ हुआ है अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों के केंद्र का परीक्षण तथा राष्ट्र की बढ़ती संख्या ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की युति की इनकी आवश्यकता को और अधिक आवश्यक किया है इन बढ़ती जटिलताओं ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से नियंत्रण केंद्रों को सहज  करने वाली बराबरी की प्रेरणा को पैदा किया है | सन 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य युद्ध की रोकथाम तथा सदस्य राष्ट्रों में या याचिक समाधान में विचार-विमर्श के लिए व्यवहार मंच प्रदान करना था | 

बहुराष्ट्रीय निगमों के विशिष्ट संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अधीनस्थता का सिद्धांत एवं स्थानीय अभिजन की भूमिका


* अधीनस्थता का सिद्धांत :-

                                                                   अधीनस्थता की प्रवृति से संबंधित अध्ययनों की शुरुआत सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर 1949 में इकोनामिक कमीशन फॉर लेटिन अमेरिका द्वारा की गई | बाद में इस संप्रदाय पर परंपरागत दो अर्थशास्त्री विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा | 

( 1 ) लेटिन अमेरिका संरचनावाद | 
( 2 ) माकर्सवाद में अधीनस्थता प्रवृति के सिद्धांत का सार केंद्र परिधि परिकल्पना है | जिसका विकास हॉब्सन लेनिन तथा पाल बैरन आदि ने अपने अध्ययन तथा कार्यों से किया | केंद्र तथा परिधि पर आर्थिक विकास के चार्ट पर विकसित तथा विकसित देशों की स्थिति को दर्शाया है इस चार्ट में विकसित तथा संपन्न देश के अंदर में है जबकि यह विकसित देश इसकी परिधि तैयार करते हैं | 

अधीनस्थता सिद्धांत बताता है कि केंद्र में स्थित देश परिधि पर स्थित देशों की संपत्ति को अपनी ओर खींचते हैं जिससे परिधि पर स्थित देश और गरीब हो जाते हैं और इस विषय में एक प्रसिद्ध विद्वान एंड गुंडर फेंक  ने बलपूर्वक एक स्थान पर लिखा है कि परिधि पर से देशों के आधिक्य का शोषण वर्ग पर आधारित नहीं होता है अपितु यह केंद्र तथा परिधि के देशों के संबंध पर निर्भर करता है इस सिद्धांत का एक अन्य महत्वपूर्ण कथन यह है कि यह सिद्धांत उत्पादन के संबंधों की शक्तियों के विश्लेषण के बजाय विभिन्न देशों के मध्य संबंध बनाने पर अधिक जोर देता है | 

* पिछड़ापन और अधीनस्थता :-

                                                                        यह सिद्धांत विकसित देशों के पिछड़ेपन के कारणों का अध्ययन करते हुए अंकित करती है कि अधीनस्थ बाहरी शक्तियों द्वारा आर्थिक प्रभुत्व का प्रयास या उपनिवेशवाद का नया रूप है अधीनस्थ देश से माना जाता है जिस देश का विकास दूसरे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था द्वारा तय किया जाता है अधीनस्थता की शुरुआत अंतरराष्ट्रीय बाजार में विकसित देशों के प्रवेश के साथ शुरू होती है जहां पर उस कुछ प्राथमिक उत्पादनो के निर्यात में विशिष्टता हासिल करवाई जाती है | किसी भी निर्भर देश ने प्राथमिक उत्पादनो  से प्राप्त आ बाकी संचे प्रक्रिया के लिए अत्यधिक अनिवार्य है लेकिन वहां के कैंसर के लिए प्रत्येक उत्पादक कुल आयात के अत्यंत लघु भाग का ही प्रतिनिधित्व करता है यह उत्पादक अन्य देशों से भी उपलब्ध हो सकते हैं | 
अत : केंद्रीय देशों की अर्थव्यवस्था में होता परिवर्तन परिधि पर स्थित देशों की अर्थव्यवस्था पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव डालता है | 
दूसरा अधीनस्थता का प्रमुख कारण अधीन देश द्वारा उत्पादित की जाने वाली सामग्री में विदेशियों का मालिकाना हक है ऐसी स्थिति में निर्भर देश का विकास या उसके सीएम में वृद्धि केंद्र में स्थित देश की सफलता पर निर्भर करती है इसमें वस्तुओं का उत्पादन उत्पादन जीवन चक्र मंडल के आधार पर होता है इससे मंडल के अनुसार पहले तो उत्पादन ओं को विकसित देशों में उत्पादित तथा विक्रय किया जाता है | तंदुपरांत  इसका उत्पादन तो विकसित देशों में होता है पर उनकी बिक्री अधीनस्थ पिछड़े देशों में की जाती है और अंत में इन वस्तुओं का उत्पादन भी उन्हीं अधीनस्थ परिधि के देशों में ही किया जाता है उत्पादन परिधि पर स्थित गरीब देशों में तभी किया जाता है जब इस में प्रयोग की जाने वाली तकनीक की नहीं नहीं रह जाती है | 

*: स्थानीय अभिजन की भूमिका:-

                                                                         गरीब देशों की सामान्य जनता विकसित देशों द्वारा उत्पादित इन वस्तुओं का उपभोग नहीं कर पाती है इनमें इन उत्पादकों के प्रति विरोध की तीव्र  भावना होती है इस समस्या से निजात पाने हेतु विकसित देशों के लोग परिधि पर स्थित गरीबो देश के अभिजात वर्ग से पहल कर अपने संबंध बनाते हैं जिसका दौहरा उद्देश्य होता है | 
( 1 ) केंद्र पर स्थित विकसित देशों के उत्पादन को स्थानीय सहयोग मिलता है तथा | 

( 2 ) निर्भर देश भी इन विलासी उत्पादकों के लिए सीमित मात्रा में ही सही परंतु बाजार उपलब्ध करवाते हैं | 

 यह दोहरा पन पिछड़े देशों की समस्याओं को और बढ़ाते हैं क्योंकि इस समय तक अपने ही देश में एक ऐसे शक्तिशाली लॉबी भी का उदय हो गया है जिसका ने केवल उत्पाद तकनीकी आर्थिक तथा राजनीतिक विचारों के संबंध में सामान्य जनमानस से अलग या विरोधी विचार होते हैं बल्कि कुछ समय पश्चात सरकार के स्वरूप तथा विदेश नीति तक कोई भी एक लॉबी भी प्रभावित करती है | जैसे जैसे पिछड़े देशों के अभिजात वर्ग तथा सामान्य वर्ग में विषमता बढ़ती जाती है वैसे-वैसे अभिजात वर्ग का लगा विदेशी पूंजी की ओर बढ़ता जाता है पिछड़े देशों के अभिजात वर्ग के लोग काफी सुशिक्षित होते हैं तथा विकसित देशों के संबंध में रहने के कारण वे उन्हीं देशों के जैसे मूल्यों को स्वीकार कर लेते हैं तथा वे इतने संपन्न होते हैं कि उनका जीवन स्तर भी विकसित देश के लोगों जैसा होता है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभिजात वर्ग के आपसी संबंधों ने पिछड़े देशों की आंतरिक संरचना में बिखराव पैदा कर दिया है जैसा कि लेटिन अमेरिका देश नियर के तथा लंदन में रहकर विलासिता पूर्ण जीवन जीरे पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग के लोग इन देशों के लिए स्वतंत्र बाजार का नारा देते हैं जबकि यह देश अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए अभी बिल को नव जाते यद्यपि आरंभ में कुछ समय के लिए ऐसा लगता है जैसे स्थानीय अभिजात वर्ग के लोग केंद्र स्थित विकसित देशों की तुलना में कुछ फायदे में हो रहे हैं या उनकी निर्भरता के अंदर पर कम हो रही है परंतु इस अभिजात वर्ग में विकसित देशों के लिए अपनी सामान्य जनता से ज्यादा सामीप्य  प्रभाव रखता है |  पिछड़े देशों में अभिजात वर्ग की उत्पत्ति के वही कारण होते हैं जो केंद्र में विकसित देशों के स्थापित होने होने के होते हैं जैसे अन्य उत्पाद को का पहले इस अभिजात वर्ग द्वारा स्वयं  उपभोग किया जाता है और फिर पूंजी में नहीं तकनीकी द्वारा इन उत्पादकों को उत्पाद कर सामान्य जनता में उन्हें बेचने का प्रयास करते हैं इस अभिजात वर्ग का संगठन काफी मजबूत होता है तथा वे उनका जीवन स्तर जो कि विकसित देशों के स्तर पर होता है सामान्य जनता के लिए उस स्तर तक पहुंचने के लिए प्रेरक  का कार्य करते हैं | 

* बहुराष्ट्रीय निगमों की कार्यप्रणाली:-

                                                                                  बहुराष्ट्रीय निगमों को उन फर्मों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो किसी वस्तु के उत्पादन तथा वितरण की प्रणाली को एक से अधिक देशों में नियंत्रित करती है यह बहुत ही विशाल और गतिशील उदयम है जो विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में संगन होती है इन बहुराष्ट्रीय निगमों को मुख्यालय से कुछ व्यक्तियों के समूह द्वारा दुनिया भर में संचालित किया जाता है तथा वह वहीं से अपने अधिकारियों पूंजी तथा बाजार पर नियंत्रण रखते हैं इन नियमों की सफलता में उनकी महत्वपूर्ण जी विकसित तकनीकों तथा उनके ब्रांड की महत्वपूर्ण भूमिका होती है यह निगम पूरी दुनिया को कहीं तरीकों से प्रभावित करते हैं जैसे बहुराष्ट्रीय निगम पूरी दुनिया के आरती निर्णय को पर अपना प्रभाव रखते कि कब कहां क्या और कितना उत्पादन उत्पादित किया जाए अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में निगमों का आकार और सघनता वहां के संसाधनों के उपयोग तथा नियंत्रण को सीधे प्रभावित करते हैं | 

* बहुराष्ट्रीय निगमों के उदय की महत्वपूर्ण बातें :-

( 1 ) अंतर्राष्ट्रीय परिवहन में लागत की कमी | 
( 2 ) अंतरराष्ट्रीय संचार की लागत में कमी | 
( 3 ) प्रमुख औद्योगिक नवाचारों को आरंभ करने की लागत में बढ़ोतरी | 

 द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात सार्वभौमीकरण की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है क्योंकि समय विभिन्न प्रकार के आयतों से इस विषय के विभिन्न देश आपस में जुड़े जिसकी लागत भी अपेक्षाकृत कम थी शीत युद्ध के कारण यह है विश्व दो खंडों में विभाजित था परंतु इसमें से प्रतिय करने के देश आपस में बहुत मजबूती से नहीं जुड़े थे संचार साधनों में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण विभिन्न देश आपस में बड़ी तेजी से करीब आए दूरसंचार के विस्तृत जाल से ग्लोबलाजेशन के पक्ष में इन फर्मों का विकास हुआ विस्तृत पूंजी संसाधनों के कारण इन निगमों का परिचय एक देश से दूसरे देश में तेजी से हुआ तथा उपलब्ध वित्तीय व्यवस्था से इन नेताओं से लाभ उठाया क्योंकि इन बहुराष्ट्रीय निगमों ने सती कच्ची सामग्री कहीं एक देश से खरीदी उत्पादन वहां किया जाए श्रम सस्ता था वह निर्यात उन देशों को दिया जा उनकी मांग अधिक कि इन नियमों के विस्तृत संसाधनों व आकार तथा सरल पहुंच के कारण इनके शोध और विकास विभाग में उन्नति के लिए बड़ी तत्परता से नए-नए चित्र खोजे तथा नए नए उद्योगों को लगाने में जो भारी खर्च आया उस इन बहुराष्ट्रीय निगमों ने उठाया | 

* बहुराष्ट्रीय निगम और  निर्भरता:-

                                                                          नियमों की अपनी शक्तियों के नकारात्मक प्रयोग  के कारण नियमों को विषम विकास का कारण माना जाता है निर्भर देशों में इन बहुराष्ट्रीय निगमों को दम घोंटू  का कारण भी माना जाता है यह निगम दुनियाभर के बाजार के उत्पादन संघ है जो विषम आए तथा विकासशील देशों में रोजगार के अवसरों को नष्ट कर गरीबी बढ़ाते हैं और इन सब का कारण इन बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा प्रयोग की जानेवाली अनुपयुक्त तकनीकी बहुराष्ट्रीय निगम उन क्षेत्रों में अधिक प्रभावी है जिन क्षेत्रों में संशोधन को चाहिए लोगों के हाथ में सीमित है जैसे कंप्यूटर तथा मेल क्षेत्र | 1980 में दुनिया भर के तेल में प्रगति गैस के 273 भाग पर इन दिनों का नियंत्रण था |