* मध्यकालीन भारत में राजनीतिक विचार एवं सामाजिक स्थितियां:-
( 1 )विचारों का स्त्रोत :-
मध्यकालीन ऐतिहासिक संदर्भ में प्रायः मुस्लिम विचार एवं सामाजिक राजनीतिक प्रक्रियाओं को ही एकमात्र स्त्रोत माना जाता है यह मान्यता असंगत है यह सही है कि मुस्लिम वैचारिक परी पक्षीय मध्यकालीन भारत का सर्वाधिक प्रमुख पक्ष था लेकिन उस काल में मराठा एवं सिख राजनीतिक विचारों के भी पर्याप्त साक्ष्य उपस्थित हैं | मुस्लिम वैचारिक पक्ष प्रमुखत :बर्नी के कृतित्व से प्रकट होते हैं इस दृष्टि से बर्नी की फतव -ए - जहांगीरी विशेष उल्लेखनीय है इसके अतिरिक्त अबुल फजल की आईने अकबरी ब्रजरत्न द्वारा अनुवादित जहांगीरनामा, बाबरनामा, फतवा - आलमगीरी आप भी अन्य उल्लेखनीय ग्रंथ है सिख धर्म में निहित राजनीतिक विचारों की दृष्टि से उसके धर्म ग्रंथों आदि ग्रंथ व उसके विकसित /संवर्दित रूप ग्रंथ साहिब के अतिरिक्त गुरु गोविंद सिंह के कृतित्व विशेष उल्लेखनीय है |
( 2 ) मध्यकालीन राजनीतिक विचारों का मूल स्वरूप एवं प्रकृति :-
मध्यकालीन राजनीती विचारों के स्वरूप व प्रकृति की चर्चा से पूर्व स्वयं भारतीय मध्यकाल के स्वरूप और प्रकृति का संक्षिप्त उल्लेख प्रांसगिक है भारतीय मध्यकाल की अवधि पाश्चात्य मध्यकाल की अपेक्षा कहीं अधिक लंबी रही है भारतीय मध्य काल का प्रारंभ प्राय गुप्त साम्राज्य के पतन से शुरू होता है सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरांत तो निश्चित और वह प्लासी के युद्ध की समाप्ति तक ( 1748 तक ) व्याप्त रहा है इस दृष्टि से जहां पश्चिम में 1453 मैं रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ही आधुनिक युग का सूत्रपात होने लगा था वही भारत में उसके 300 वर्षों के अंतराल तक मध्यकाल परिवर्तित रहा |
* मध्यकालीन राजनीतिक विचारों के वी. पी. वर्मा के अनुसार प्रमुख विचार केंद्र:-
( 1 ) वीरगाथा काल के लेखकों के कृतित्व मे प्रकट सामंती- राजतंत्रात्मक विचार |
( 2 ) भक्ति संप्रदाय के कृतिकारों की कृतियों में प्रकट धार्मिक परंपरावाद |
( 3 ) तुर्की - अफगान तथा मुगल काल में अभिव्यक्त इस्लामी धर्मतांत्रिक अवधारणाए |
( 4 ) नानक तथा कबीर की वाणीयों में अभिव्यक्त समन्वयात्मक समाजशास्त्र जिसने इस्लाम में हिंदू धर्म के बीच पारंपरिक संबंधों को प्रोत्साहित किया |
( 5 ) मराठा संतों के लिए सामाजिक राजनीतिक मंतव्य जिन्होंने व्यक्तिवाद सामाजिक समता तथा उन्नत |
इन समस्त विचार केंद्रों के विषय में एक बात समान रूप से लागू होती है इन पांचों वैचारिक केंद्रों में विकसित राजनीतिक विचार स्वतंत्र अथवा मौलिक रूप से राजनीतिक नहीं है वे प्रधानत : धार्मिक विचारों से उद्धृत है धार्मिक मंत्वयो और नीति वचनों से राजनीतिक निहितार्थ उद्घाटित किए गए हैं दूसरे अर्थों में धर्म की यह प्रधानता वैचारिक सवार प्राचीन एवं मध्यकालीन विचार परंपराओं में कोई बुनियादी अलगाव नहीं उपस्थित करती विद्यानिवास मिश्र की यह लिए मान्यता है की प्राचीन हिंदू और मध्यकालीन इस्लामिक जीवन शैलियों में अंतर बुनियादी कम और सतहि अधिक है इस समन्वयात्मक पृष्ठभूमि में मध्यकालीन राजनीतिक विचारों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है मुख्यतः इस्लाम से अनु प्रेरित यह राजनीति विचार कुरान से प्राप्त शरीयत पर आधारित है राज्य का उद्देश्य शरियत के आधार शासन संचालन था एक ग्रंथ अथवा कानूनी स्त्रोत निर्भरता की यह स्थिति विवेक की कम भूमिका निर्धारित करती थी अतः इसमें विश्वास के प्रति कट्टरपंथी आग्रह निहित था बरनी इस काल का एक उल्लेखनीय राजनीतिक विचारक था उसका यह वैचारिक आग्रह था कि राजा को इस्लाम की स्थापना से अभिप्रेरित होकर राज्य की नींव डालनी चाहिए यद्यपि बरनी पर अरस्तु के विचारों का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है जो कि उसकी न्याय की अवधारणा तथा राज -काज संयम व उदारता में प्रकट होना है |
* बरनी ने संप्रभु के लिए तीन कार्य प्रतिपादित किए:-
( 1 ) शरियत का प्रवर्त्तन |
( 2 ) अनैतिक तथा पाप युक्त आचरण एवं क्रियाओं पर रोक |
( 3 ) न्याय का परिचालन और इसके लिए विविध नियुक्तियों का प्रबंध |
* सामाजिक प्रभाव:-
मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में समाज और संस्तुति के प्रसंगों को शासकों के प्राय : शासकीय हस्तक्षेप की परिधि के परे रखा इस अ - हस्तक्षेप का उद्देश्य उदारवाद का प्रवर्त्तन नहीं था क्योंकि मात्रा भेद के बावजूद मुगल शासक मूलत :प्रबल इस्लामी अनुयायी थे इस प्रभाव के फल स्वरुप राजनीति के अतिरिक्त जीवन के अन्य सभी प्रशन को स्थापत्य मूर्तिकला चित्रकला संगीत साहित्य आदि पर हिंदू-मुस्लिम समन्वय की छाप दिखाई दी भक्ति काल और सूफी परंपरा इसी समन्वयात्मक लोक चेतना के उदाहरण है मुगल साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण के परिणाम स्वरूप भारतीय समाज का जो संगठन प्रस्तुत हुआ उसमें राजा सर्वोच्च स्थान पर था उसके बाद दरबारी वर्ग तंदू प्रांत एक लघु और मध्यम वर्ग तथा पदसोपान के निचले सिरे पर कृषक वर्ग विद्यमान था जब तक राजा सद्गुणी और गजका ज में विवेकी रहें वे इस सामाजिक रचना की विसंगतियों को प्रति - संतुलित करते रहें एक बार जब राजा शासनकाल और सद्गुणों दोनों से दूर हो गए और उनकी तथा दरबारी वर्ग की जीवनवृत्तियाँ नितांत विलासी हो गई तो उसके विलास को बरकरार रखने के लिए सरचना के नियम तम घटक को लगातार उत्पीड़ित किया जाने लगा उससे यह अपेक्षा की गई कि वह केवल अपने शर्म से सरचना के उत्तर लोगों के विलासी जीवन शैली को सुलभ करें उसका मोल चुका है |
* आधुनिक भारतीय सामाजिक- राजनीतिक विचार प्रसंग:-
( 1 ) उपनिवेशवादी ब्रिटिश आग्रह, प्रक्रिया एवं उनका प्रभाव :-
ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने पहली बार भारत के संपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक परिदश्य को बुनियादी तौर पर विचलित किया उसे समाज में हर स्तर पर ऐसी उत्तल पुथल हुई की पुरानी सामाजिक संरचना अपनी जड़ों तक चरमरा गई और उसके साथ ही उसके साथ पनपी सम्मान संस्कृति भी पुरोहित वर्गीय कुलीनतंत्रीय,कृषक, व्यापारी तथा औद्योगिक वर्गों में व्याप्त वे सभी पुराने सांमजस्य यकायक शिथिल बढ़ गए थे |
( 2 ) अंग्रेजी संपर्क का प्रभाव:-
अंग्रेजी व्यवस्था के सुद्ढीकरण यातायात के साधन बड़े जिससे स्वयं भारतीय भी एक दूसरे से जुड़े हैं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव ने यहां भारतीयता की जड़े कमजोर की वहीं उसने भारतीयों के मानसिक क्षितिज का भी विस्तार किया राजा राममोहन राय पिता ब्रह्मा दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज रानाडे तथा प्रार्थना समाज एनी बेसेंट तथा थियोसोफिकल सोसाइटी आंदोलन आदि इसी सामाजिक संदर्भ के सटीक उदाहरण है |
( 3 ) उपनिवेशवाद का प्रतिकार :-
आरंभिक राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीयता के स्वर संयोजन की दृष्टि से उपनिवेशवाद के प्रतिकारी कथानक को अंगीकार किया आर्थिक शोषण से मुक्ति आर्थिक स्वालंबन कुटीर उद्योगों को संरक्षण हस्तकलाओं के हास का प्रतिकार आदि ऐसे मंतव्य थे जिन्होंने दादा भाई नौरोजी गोपाल कृष्ण गोखले महादेव गोविंद रानाडे विचार गांव को वैचारिक दृष्टि से पर्याप्त अभिप्रेरित किया |
( 4 ) महात्मा गांधी की भूमिका तथा योगदान:-
महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व में भारतीयता की पुन : खोज संपूर्ण विस्तार पारी हैं दार्शनिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, तथा रचनात्मक कार्यक्रमों के विविध स्तरों पर महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक समग्र दृष्टि तथा व्यापक जनाधार प्रदान किया |
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