Friday, 15 November 2019

मानवेन्द्रनाथ रॉय का राजनीतिक चिंतन एवं भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या



* मानवेन्द्र नाथ रॉय का परिचय :-

                                                                              मानवेन्द्र नाथ रॉय  ( 1886 - 1954 ) का जन्म एक ऐसे समय में हुआ जब बंगाल में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का बहुत प्रभाव था निश्चित रूप से ऐसे समय में राजनैतिक बोध का होना अपने आप में महत्वपूर्ण है अतः मानवेन्द्र नाथ रॉय अपने विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी बन गए थे अर्थात प्रारंभिक जीवन से ही वामपंथ की तरफ उनका झुकाव हो जाता है क्योंकि रॉय  कट्टर राष्ट्रवादी थे आते राष्ट्रीय मुक्ति की खोज में सन 1915 में वह भारत छोड़कर इंडोनेशिया चले गए वहां से जावा, फिलीपीन, कोरिया, तथा मंचूरिया,  होते हुए वे अमेरिका पहुंचे जहां उग्रवादी नेता लाला लाजपत राय ने उनकी दोस्ती हुई वैचारिक धरातल पर माकर्सवाद के प्रभाव कारण यहां पर एम. एन.  रॉय यह मानने लगे कि राष्ट्रवाद को समाजवाद के साथ छोडकर देखा जाना चाहिए | 

* उपनिवेशीकरण का सिद्वान्त :-

                                                                             कॉमिन्टर्न के छटे कांग्रेस अधिवेशन 1928 में एम. एन. रॉय ने उपनिवेशीकरण  का सिद्धांत प्रतिपादित किया  | उपनिवेशीकरण का अर्थ यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूंजी का हास हो चुका है आते उसके लाभ का कुछ अंश भारतीय पूंजीपति वर्ग को प्राप्त होगा इस तरह रॉय साम्राज्यवाद के बदलते हुए स्वभाव का उल्लेख किया | इसलिए उनके लिए आवश्यक हो गया है कि वे उपनिवेशन के पूंजीपति वर्ग के साथ संयुक्त साझेदारी कायम करें अतः एमएन रॉय का था कि आगे चलकर साम्राज्यवाद का मूल्य घट जाएगा और तब विदेशी पूंजीपतियों को बाध्य होकर अपनी शक्ति का परित्याग करना पड़ेगा साथ ही इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव यह भी पास किया जिसमें भारतीय जनता को चेतावनी दी गई कि प्रतिक्रियावादी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उनके साथ कभी भी विश्वासघात कर सकती है  | जिन्होंने साम्राज्यवादियों के साथ प्रतिस्पर्धात्मक रूप से जनसामान्य का शोषण करना प्रारंभ कर दिया है जैसे-जैसे यह नया बुर्जुआ वर्ग संगठित होता गया वैसे-वैसे उसने साम्राज्य वादियों से औद्योगिक क्षेत्र में रियासतें मांगना प्रारंभ कर दिया साथ ही दूसरी तरफ साम्राज्य वादियों को जनसामान्य के आक्रोश का भी सामना करना पड़ा फल देते एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो गई और जैसे-जैसे यह क्रांतिकारी स्थिति बढ़ती गई वैसे-वैसे साम्राज्य वादियो ने रियासतें देना प्रारंभ कर दिया साम्राज्य वादियों ने जिस अनुपात में रियासत यदि उस अनुपात में रियासतें उनके पतन का कारण बन गई आते इस नए बुर्जुआ वर्ग अपने कार्यों का संपादन निजी तौर पर साम्राज्य वादियों के पृथक रूप से करना प्रारंभ कर दिया भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नई आर्थिक नीति ने वर्ग विभिनता को तीर्थ करते हुए उस वर्ग संघर्ष की ओर बढ़ा दिया तथा यह मान्यता की राष्ट्रीय संग्राम पूंजीवादी विरोधी आधार पर टिका हुआ है अपनी मान्यता खो चुका है अतः रॉय ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारत में पुजवा वर्ग क्रांतिकारी वर्ग नहीं है और न ही वे जन सामन्य को क्रांतिकारी स्थिति की ओर अग्रसर कर सकता है | 

* भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या :-

                                                                                                          एम. एन. रॉय ने भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी  व्याख्या द्वारा भारतीय समाजवादी चिंतन को महत्वपूर्ण योगदान दिया है |  एम. एन. रॉय का मानना था कि सामंतवादी अर्थव्यवस्था का धीरे धीरे श्रय हो रहा है भारत में सामंतवादी व्यवस्था को सबसे पहले धक्का ब्रिटिश अधिपत्य के प्रारंभिक काल 18 वीं शताब्दी के मध्य में लगा जबकि राजनीतिक सत्ता विदेशी वाणिज्यिक बुर्जुआ वर्ग के हाथों में चली गई सामंतवाद के अंतिम अवशेषों को 1857 की क्रांति की असफलता ने चूर चूर कर दिया जिससे कि एम. एन. रॉय ने सामंतवादी व्यवस्था द्वारा अपनी प्रभुता प्राप्ति के अंतिम प्रयास की संख्या दी है भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एक तरह  से पूंजीवादी उत्पादन साधन तंत्र के रूप में थी  | परंतु वे जानता था कि ब्रिटिश सत्ता को जन सामान्य के सहयोग के बिना नहीं हटाया जा सकता आते उसने जनसामान्य के साथ मिलकर राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करना शुरू कर दिया इस संदर्भ में रॉय  उदाहरण देते हुए कहते हैं कि सर 1905 में मुस्लिम लीग  की स्थापना पूंजीपति मुसलमानों के हित वृद्धि की सत्ता थी तथा उसने कांग्रेस से विरोधी रुख अपनाया परंतु कालांतर में चलकर लीग ने अपने प्रारंभिक भूमिका को त्याग दिया और 1 वर्ग के रूप में भारतीय बुर्जुआ राष्ट्रीय आंदोलन में अपने को विंध्य कर दिया साथ ही रॉय  ने यह बहुत ही उल्लेखनीय तथ्य स्पष्ट किया कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग की भूमिका यूरोप की भांति सामाजिक दृष्टि से प्रगतिकरी नहीं रही | 

* मार्क्सवाद की आलोचना :-

                                                            मानवेन्द्रनाथ रॉय का चिंतन मार्क्स से काफी प्रभावित रॉय  ने चिंतन  निर्धारण में मार्क्सवादी दर्शन की महती भूमिका रही किंतु बेचारी विकास की दृष्टि से उनके चिंतन के दो पक्ष रहे | 
    ( 1 ) प्रतिबंद मार्क्सवादी रूप में | 
 
    ( 2 ) संशोधनवादी के रूप में | 

* नव मानववाद :-

                                   मानववादी तत्व पाश्चत्य दर्शन के अन्य संप्रदायों तथा युगों में देखने को मिलते हैं वे मानव को सर्वोपरि महत्व देते हैं परंतु रॉय के अनुसार मानव को किसी अतिमानव या अप्राकृतिक सत्ता के अधीन करने की मिथ्या  धारणा से नहीं बच पाए हैं उनका मनुष्य एक रहस्य  एक विश्वास का विषय ही बना रहा है रॉय  ने इस मिथ्या धारणा को भंग करने का प्रयास किया उन्होंने मानव को आपने मानवतावाद का केंद्र बनाया जो कि मानव जगत से सभी प्रकार की अतिप्राकृतिक सतता को बहिष्कृत करता है मानव समाज के अपने ज्ञान में हमें अपने आपको केवल मनुष्य तथा स्वतंत्रता की खोज तक ही सीमित रखना चाहिए यह तो उन लोगों के लिए जो कि संसार की वास्तविकता में विश्वास रखते हैं किंतु उस विश्वास के लिए यह मानना आवश्यक नहीं समझते कि संसार की सृष्टि एक दूसरे शब्द द्वारा हुई है जो रेशिया वाद के बिना अस्मिता की धारणा का सामना कर सकते हैं जो अपनी जाति को विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम मानते हैं और जो नैतिकता में विश्वास इसलिए करते हैं कि क्योंकि यह मानव स्वभाव के अनुकूल है इसलिए नहीं कि उसकी व्यवस्था ईश्वर ने की है | 

* आधारभूत मूल्यात्मक तत्व :-

                                                              नवीन मानववाद नैतिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता  को स्वीकार करता है या आध्यात्मिक स्वतंत्रता  का अर्थ राजनैतिक आर्थिक तथा सामाजिक शक्तियों से मुक्ति है | यूरोप में पुनर्जागरण के आध्यात्मिक स्वतंत्रता  का संदेश दिया था किंतु पूंजीवादी समाज के बंधनों से उत्पन्न भय  तथा नैतिक अविश्वास ने उसे अभिभूत कर दिया स्वतंत्रता एक वास्तविक सामाजिक धारणा है वह जीवन की एक प्रमुख प्रेरणा  है स्वतंत्रता कोई बरमान से पहले की वस्तु भी नहीं है उससे संसार में करना होता है कुछ आंतरिक नियमन तथा बाह्य बंधनों के बावजूद आत्म स्वतंत्रता  रह सकती है  | 

* अविकल मानववाद के तीन आधारभूत मूल्यत्मक तत्व :-

 ( 1 ) स्वतंत्रता 

 ( 2 ) बुद्धि 

 ( 3 ) नैतिकता  | 


* स्वतंत्रता के तीन मुख्य स्तंभ :-

 (1 ) मानववाद | 

 ( 2 ) व्यक्तिवाद | 

 ( 3 ) बुद्धि वाद | 
 नवीन मानववाद विश्व राज्यवादी है आध्यात्मिक दृष्टि से स्वतंत्र व्यक्तियों का विश्व राज्य राष्ट्रीय राज्यों की सीमाओं से परी बंद नहीं होगा वे राज्य पूंजीवादी फासीवादी समाजवादी साम्यवादी अथवा अन्य किसी प्रकार के क्यों न हो राष्ट्रीय राज्य मानव के बीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण के आघात से धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएंगे | 

No comments:

Post a Comment