* रविंद्र नाथ टैगोर का जीवन परिचय:-
रविंद्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता में हुआ था टैगोर परिवार कलकत्ता के सर्वाधिक सुसंस्कृत परिवारों में से था मुलत: कन्नौज के शांडिल्य गोत्र के राधे ब्राह्मण थे यह माना जाता था कि 17 वीं शताब्दी में मुस्लिम शासन के दौरान उनके पूर्वज अपने सरकारी उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए मुसलमानों के साथ खाते पीते थे इसलिए रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने उनके साथ सब तरह के सामाजिक संबंध तोड़ दिए थे रविंद्र नाथ के दादा द्वारकानाथ ने बहुत धन कमाने में सफलता प्राप्त की थी इसलिए उन्हें राजा का जाता था उनका तत्कालीन सरकारी अधिकारियों पर काफी प्रभुत्व था और जनहित कार्यों में उनकी सलाह का सम्मान किया जाता था अपने जीवन काल में वे दो बार इंग्लैंड और यूरोप गए जिन देशों में ले गए वहां उनका भव्य स्वागत किया गया 1846 मैं उनकी लंदन में ही मृत्यु हुई |
रविंद्र नाथ के पिता देवेंद्र नाथ एक धार्मिक गुणों के व्यक्ति थे उन्हें महर्षि कहा जाता था राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद उनके मुख्य अनुयाई होने के कारण वे ब्रह्मसमाज के मुखिया बन गए रविंद्र नाथ अपने माता पिता की चौधरी संतान थे रविंद्र नाथ की अल्पायु में ही उनकी माता का देहांत हो गया था इसलिए माता की अपेक्षा उन पर पिता का ही अधिक प्रभाव पड़ा जैसे कि उनकी लेखनी से स्पष्ट होता है | टैगोर का जन्म है यद्यपि यह धनी और समृद परिवार में हुआ था परंतु उनका और उनके भाइयों का पालन पोषण सादा तरीके से हुआ था रविंद्र नाथ ने अपने बच्चों को सादा जीवन उच्च विचार के गुणों को सिखाया और उन्हें किसी भी कीमत पर सत्य और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उत्साहित किया रविंद्र नाथ के नेतृत्व में उनके परिवार के बच्चे नियमित रूप से उपनिषदों का अध्ययन करते थे प्रातः और सायं कालीन प्रार्थना ओं में भाग लेते थे 7 वर्ष की आयु में रविंद्र नाथ को स्कूल भेजा गया परंतु वे जैसा स्कूल को ले जाते थे वे उन्हें तभी मिला जब उन्होंने अपना स्कूल सबसे पहली बार शांतिनिकेतन में खोला जो अब विश्वभारती विश्वविद्यालय हैं अपने स्कूल के प्रति असंतोष ने ही उनको शांतिनिकेतन में है एक नवीन विद्यालय खोलने के लिए प्रेरित किया जहां वे विद्यार्थियों को एक नवीन पद्धति के अनुसार शिक्षा प्रदान कर सकते थे |
* टैगोर के राजनीतिक विचार:-
टैगोर का लेखन कार्य इतना अधिक बहुपक्षीय एक ही उनके राजनीतिक विचारों का विश्लेषण करना सरल नहीं है गांधीजी की तरह रविंद्र नाथ के राजनीतिक विचार उनके आध्यात्मिक आदर्शों और धार्मिक विश्वासों पर केंद्रित हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का उच्चतम सत्य स्वरूप अनुभूति है अर्थात अपने अंदर के देवत्व को पहचानना है टैगोर के राजनीतिक दर्शन का विकास उनके आध्यात्मिक मानवतावाद पर आधारित था वे राजनीति कार्यों को आवश्यकता या अवसरवादी ता से नहीं जोड़ना चाहते थे इस तरह वह मैक्यावली द्वारा प्रतिपादित राजकला के विरोधी थे परंतु यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि टैगोर जब राजनीति को धर्म पर आधारित करने की बात करते थे तो वह धर्म सत्ता की स्थापना की बात नहीं कर रहे होते थे टैगोर के राजनीतिक चिंतन का आधार समझने से ही उनके स्वतंत्रता अधिकार राष्ट्रवाद अंतरराष्ट्रीय वाद इत्यादि पर विचारों को समझा जा सकता है टैगोर का राजनीति के प्रति दृष्टिकोण मूल्य थे आध्यात्मिकता जो कि उनके इस धार्मिक विश्वास पर टिका था कि मनुष्य आवश्यक रूप से आध्यात्मिक होता है |
( 1 ) सुविधा या आवश्यकता की राजनीति नहीं:-
टैगोर राजनीति को ``उपयोगिता की भावना´´ पर आधारित नहीं चाहते थे उनके अनुसार मानवीय संबंधों का आधार ``प्रेम ´´होना चाहिए ने की उपयोगिता | उनके अनुसार व्यक्ति विषय को जब अपनी इच्छाओं के जरीये देखता है तो वास्तविक सत्य को नहीं समझ सकता और विश्व को छोटा और संकिर्ण बना देता है उनके अनुसार भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता अधिक वास्तविक है |
( 2 ) साध्य और साधन :-
गांधीजी की तरह टैगोर के लिए साध्य और साधन सम्मान शब्द थे साध्य की प्राप्ति में साधनों की शुद्धता मूल सिद्धांत है विज्ञान या यथार्थवाद के नाम पर राजनीति का नैतिक सिद्धांतों से पृथक्करण उन्हें स्वीकार्य नहीं था और वैसे आत्मा की हत्या के लिए एक जाल समझते थे उनके अनुसार किसी आदर्श की पूर्ति की अपेक्षा सफलता उस आदेश की प्राप्ति के लिए किए गए एक ईमानदार प्रयास मे निहित है एगो राजनीति को जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने का साधन मानते थे |
( 3 ) व्यक्ति की प्रधानता:-
टैगोर व्यक्ति को समस्त प्रकार के संस्थाओं और संगठनों से ऊपर मानते थे संस्था की प्रकृति चाहे राजनीतिक सामाजिक या आर्थिक को उनके अनुसार मनुष्य उस व्यवस्था से ऊपर है जिसकी वे रचना करता है टैगोर का कहना था कि मनुष्य की लड़ाई सैद्वांतिक लड़ाई है और वह सदा स्वयं को उन संगठनों का व्यवस्थाओं से स्वतंत्र कराने के लिए लड़ा है जिन्हे उसने अपने चारों तरफ बुन लिया है रविंद्र नाथ के अनुसार पश्चिम में संगठन से मनुष्य पहले हैं जबकि भारत में संगठन व्यक्ति के बाद में हैं |
( 4 ) सर्वहित:-
अपने व्यापक संदर्भ में इसका अर्थ है सर्वभूतहित या बहुत ही भलाई की अपेक्षा सब का भव्य |
( 5 ) स्वतंत्रता की अवधारणा:-
टैगोर बौद्धिक दासता को राजनीतिक दासता से अधिक खतरनाक समझते थे स्वतंत्रता कि उनकी एक आध्यात्मिक अवधारणा थी और राजनीति स्वतंत्रता तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता मैं वे कोई भेद नहीं करते थे उनके अनुसार दोनों एक दूसरे की पूरक थी टैगोर का कहना था कि जो स्वराज्य को आंतरिक रूप से प्राप्त नहीं कर पाते वह इस बाह्य विश्व में भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं टैगोर के अनुसार यदि भारत अन्य सब बातों को छोड़कर केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को ही प्राप्त करने का प्रयास करता है तो वह एक संप्रभु राज्य तो बन जाएगा परंतु यह एक ऐसा राज्य होगा जिसमें पुराने सामाजिक और नैतिक समस्याओं का शुद्धिकरण नहीं बल्कि उन्हें बढ़ावा ही दिया जाएगा|
( 6 ) स्वतंत्रता और अंतरसंबंधता :-
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समन्वय के इस विचार का सुझाव विवेकानंद के द्वारा दिया गया था फिर इसे अरविंद ने विकसित किया और गांधीजी ने इसे भारत के सामाजिक संघर्ष में लागू किया टैगोर ने इन सब प्रयासों का स्वागत किया पर उन्हें इस विचार को एक दूसरी दिशा में विकसित करने पर बल दिया जिसने कि उनके युग और आधुनिक भारतीय राजनीति के प्रमुख विश्वास राष्ट्रवाद को भी चेतावनी दी |
( 7 ) अंतर्राष्ट्रीयतावाद:-
राष्ट्रवाद को विश्व शांति के लिए खतरा मानते हुए टैगोर विश्व तथा भारत की समस्याओं का निराकरण अंतरराष्ट्रीयवाद में देखेते थे उन्होंने अपने देशवासियों को नवयुग की भावना को समझने की प्रेरणा दी नवयुग की भावना थी अंतरराष्ट्रीय समन्वय तथा सामंजस्य की भावना | और संसार का कोई भी राष्ट्र अपने आपको दूसरों से प्रथक रख कर अपना कल्याण नहीं कर सकता या तो हम सब साथ साथ सुरक्षित रहेंगे या साथ साथ ही विनाश के गर्त में आ गिरेंगे |
( 8 ) अधिकार:-
टैगोर व्यक्ति के अप्रतिबंधित अधिकारों के पक्ष में नहीं थे टैगोर का कहना था कि व्यक्ति एक समाज में ही अपने साथियों के साथ एकता से अपने सुख की अनुभूति कर सकता है यह सामाजिक चेतना या सहानुभूति व्यक्ति के अधिकारों का आधार है टैगोर का यह विश्वास था कि अधिकारों की सर्वाधिक अनुभूति व्यक्ति के द्वारा अपने सहयोगियों के प्रति स्वयं द्वारा अपनाए गए कर्तव्यों और उत्तरदायित्व को पूरा करने में है यह स्वहित का अधिकाश के लिए स्वेच्छा से समर्पण है |
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