Saturday, 2 November 2019

राज्य और सदजीवन, सदजीवन की खोज किसने और क्यों की

* राज्य और सद्जीवन :-

                                                   राज्य और सद्जीवन के संबंध को समझने के लिए कुछ प्रश्नों को सामने रखना आवश्यक है यह प्रश्न है समाज की व्यवस्था क्यों ? राज्य की व्यवस्था क्यों? फिर प्रश्न उठता है सदजीवन किसके लिए? और प्लेटो का उत्तर है सद्जीवन व्यक्ति के लिए और समाज के लिए | जब प्लेटो के विचारों में राज्य तथा सद्जीवन के संबंधों को देखने का प्रयत्न किया जाता है| तो उसका अर्थ है |राज्य के द्वारा सद्जीवन की व्यवस्था को देखना | परंतु ऊपर कहा जा चुका है कि प्लेटो के अनुसार, व्यक्ति और समाज और राज्य अलग _अलग नहीं है |_व्यक्ति राज्य का संक्षिप्त रूप है समाज और राज्य अंगभूत  हैं इससे यह बात स्वयं  स्पष्ट हो जाती है| की सद्जीवन की व्यवस्था, राज्य के द्वारा, समाज के द्वारा, और यदि के द्वारा होती है |

* सद्जीवन का संबंध:-

                                                सद्जीवन का संबंध नैतिकता से हैं |इसलिए प्लेटो के अनुसार व्यक्ति और राज्य समाज मूलत : नैतिक हैं |

* प्लेटो द्वारा सद्जीवन की खोज क्यों :-

                                                                                          प्लेटो ने सद्जीवन को अपने विचारों का अभीष्ट क्यों  बनाया?  वास्तविकता यह है | की प्लेटो  को जिन समस्याओं ने उद्वेलित किया वे यह थी कि व्यक्ति स्वार्थी, व्यक्तिवादी तथा लोलुप हो गया था वे हर कार्य में अपने, को दक्ष मानता था वास्तविक ज्ञान से दूर वे अपने को  ज्ञानी होने का दम्भ भरने लगा था | उसका अज्ञान ही ज्ञान था | स्वार्थ परायणता के कारण समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया था -अमीर और गरीब | तथा दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे समाज और राज्य तीव्र गति से पूर्ण विघटन की ओर अग्रसर थे उस इन सभी समस्याओं का समाधान करना था विचार करने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचा की सभी समस्याओं के मूल में एक ही समस्या है सभी समस्याओं की जड़ यह थी कि मनुष्य का पतन हो गया था वह वह,  नहीं रहा जो उसे होना चाहिए  था | इसलिए स्वार्थ परायणता से ग्रस्त, अपने स्वार्थ मे सीमित, धन तथा प्रभाव के आकर्षण में मतभृम उसने समाज को दो संघर्षरत वर्गों में विभक्त कर दिया था  वास्तविक पारस्परिकता के लोप  होने के कारण  समाज का विघटन की ओर जाना एक अनिवार्यता बन गई थी | 

* सद्जीवन का स्वरूप - 1 न्याय का संदर्भ :-

                                                                                                    अब हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि सद्जीवन का प्लेटो क्या स्वरूप प्रस्तुत करता है प्लेटो की बात को यदि सार रूप में कहे तो हम यह कहेंगे कि उसके अनुसार  जब व्यक्ति कार्य करता है जिसको करने के योग्य है तो सद्जीवन का आविर्भाव होता है परंतु यह कथन यह नई प्रश्न  पैदा कर देता है कि हम कैसे जाने की कौन सा व्यक्ति किस कार्य को करने के योग्य हैं | कि व्यक्ति मैं इनमें से किसी एक ही प्रधानता होती है | बुद्धि की प्रधानता हो सकती है | शौर्य की प्रधानता हो सकती है | अथवा क्षुधा की प्रधानता हो सकती है जिस व्यक्ति में जिस तत्व की प्रधानता हो उसी के अनुरूप उसे कार्य करना चाहिए तत्वों से संबंधित क्या कार्य हैं क्षुधा से संबंधित जीवन की स्थूल और मूलभूत आवश्यकताएं आती है जैसे रोटी,  कपड़ा, और मकान, | इसीलिए क्षुधा की प्रधानता वाले व्यक्तियों को वे उत्पादक वर्ग की संख्या देता है शौर्य की प्रधानता वाले व्यक्ति के लिए प्लेटो रक्षात्मक क्रियाकलापों को निश्चित करता है जिसमें बुद्धि की प्रधानता है वह ऐसे व्यक्ति हैं जो नैतिकता, अच्छाई, बुराई को देखने की क्षमता प्रकट करते हैं | 

• आत्मा के  प्रमुख गुण:-

                                                         आत्मा के प्रमुख गुण तीन होते हैं ( 1 ) बुद्धि  ( 2 ) शौर्य   ( 3 ) क्षुधा | 

* न्याय शब्द की भरमोत्पाद्क क्षमता :-

                                                                                             प्लेटो के न्याय की परिकल्पना यह महत्वपूर्ण परिकल्पना है | पर इस शब्द के प्रयोग से विद्यार्थियों के लिए प्राय कठिनाई उत्पन्न हो जाती है क्योंकि जब भी कभी न्याय का प्रयोग होता है तो उससे संबंध अनेक अन्य चीजों के चित्र दिमाग में उभरने लगते हैं जैसे न्यायधीश,  न्यायालय,  कानून,  अपराध आदि और फिर जब उनको ढूंढने का प्रयास किया जाता है और प्लेटो के न्याय में उनकी अनुपस्थिति पाई जाती है तो न  केवल कठिनाई पैदा होती है अपितु मस्तिक भेर्मो के जाल में फंसे था महसूस करने लगता है कभी-कभी तो विदान लोग इन संदर्भों को लेकर  प्लेटो के विचारों की यह कहकर आलोचना करते हैं कि प्लेटो ने न्याय की बात कानून की बात नहीं की ऐसी व्याख्या प्लेटो  के मंतव्य के साथ अन्याय करती हैं  |

* सदजीवन का स्वरूप - 2  धर्म(न्याय) का व्यापक संदर्भ :-

                                                                                                                                ऊपर की चर्चा से इस बात का ज्ञान होता है कि प्लेटो के अनुसार व्यक्ति के लिए सद्जीवन क्या है |उसका धर्म क्या है?  पर प्लेटो की बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती | और हो भी नहीं सकती क्योंकि प्लेटो का व्यक्ति व्यक्तिवादियों का व्यक्ति नहीं है वह संदर्भित व्यक्ति है | वे सामाजिक है वे व्यक्ति केवल समाज के संदर्भ में है व्यक्ति और समाज दो अलग इकाइयां नहीं है बिना समाज के प्लेटों के व्यक्ति  की कल्पना ही नहीं की जा सकती | 
             

* सहभागिता :-

          ( 1 ) प्लेटो की राजकीय व्यवस्था मात्र राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं है उसके विचारों में राज्य और  समाज  दो पृथक इकाइयां नहीं है यदि सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से देखा जाए तो व्यक्ति की सहभागिता इसमें पूर्ण है तीन वर्गों में बंटा व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार सामाजिक संदर्भ में कार्य करता है अपने लिए उसके कार्य में हिस्सेदारी कम और समाज के लिए अधिक है |
   
         ( 2 ) संपूर्ण राजकीय/ सामाजिक व्यवस्था  धर्म( न्याय ) सद्जीवन के लिए हैं | धर्म \  न्याय सद्जीवन का एक प्रारूप है एक ढांचा है | यह वस्तुशिल्पीय  और नियामक है | प्लेटो इसके आधार पर तथा इसके लिए संरचित व्यवस्था को ही पूर्ण मानता है व्यक्ति ने केवल इस पूर्ण  का अव्यय है अपितु उसकी संचालनशीलता के लिए उत्तरदाई भी है  | 


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