* आदर्शवादी तथा यथार्थवादी परंपराएं:-
यों तो आदर्शवाद और यथार्थवाद की विचारधारा काफी पुरानी है परंतु 19वी सदी में नेपोलियन द्वारा लड़े गए युद्ध समाप्ति के पश्चात उत्तर प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ होने तक की सौ वर्षों की शांति ने आदर्शवादी विचारधारा को बल दिया | अनेकों उनका विश्वास था कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और विधियों की सहायता से एक अंतरराष्ट्रीय आदर्श शांतिपूर्ण मानव समुदाय की स्थापना हो सकती थी जबकि परंपरागत शक्ति संतुलन के द्वारा यह संभव नहीं था यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात भी यह विचारधारा प्रभावी रही परंतु उसके में कमी आई 30 वर्षों के भीतर हुए दो विश्वयुद्ध ने इसकी प्रामाणिकता पर पर्सन चीन लगा दिए आदर्शवादी विचारधारा में हम एक भावनात्मक सुधार हुआ दिखाई देता है द्वितीय महायुद्ध के बाद शांति स्थापित नहीं हुई शांति और सहयोग का स्थान लिया शीत युद्ध ने संसार में शक्ति दो ध्रुवों के बीच बंट गई और राष्टों के गुटों बीच , जो सैद्वांतिक आधार पर बने थे द्वितीय महायुद्ध के पश्चात राज्य के संस्थागत मैं तो मैं कमी आ गई थी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक बहु राष्ट्रीय संगठन क्रियाशील हो गए परंतु राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय संबंधों की मूलभूत इकाई फिर भी थे और उनकी प्राप्ति के लिए उन्हें क्या करना चाहिए इसलिए लेखकों का ध्यान राष्ट्रों की विदेश नीति पर गया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संघर्ष ही राष्ट्रों के संबंधों को परिभाषित करता है इसलिए द्वितीय महायुद्ध के बाद के वर्षों में 18वीं और 19वीं सदी में प्रचलित यथार्थवादी दृष्टिकोण पुन प्रतिष्ठात हुई है क्योंकि वह वस्तु स्थिति के अधिक निकट प्रतीत हुय |
* राष्ट्रीय हित की अवधारणा:-
परंपरा वादी यथार्थवादी और आधुनिक दोनों प्रकार के विचारों की मुख्यधारा राष्ट्रीय हित इस राष्ट्रीय हित की व्याख्या राष्ट्र के नेता के द्वारा की जाती है और शक्ति द्वारा उसे प्राप्त किया जाता है परंतु इसके आगे जाकर इसकी और अधिक स्पष्ट परिभाषा नहीं की जा सकी है जब राजतंत्र का प्रचलन था उस समय राजा की इच्छा या किसी वंश के हित को ही राष्ट्रीय हित मान लिया जाता था परंतु आधुनिक राज्य व्याख्या के विकास प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रसार और आर्थिक संबंधों में विस्तार के कारण राष्ट्रीय हित का नया अर्थ हो गया आधुनिक संदर्भ में उसका अर्थ किसी शासकीय शासक वर्ग के हित से नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र के व्यापक हितों से है जो राष्ट्र की सुरक्षा और समृद्धि के लिए आवश्यक है |
* हेन्स. जे मारगेन्थो के अनुसार:-
मारगेन्थो के अनुसार राष्ट्रीय हित उन सभी राजनैतिक परंपराओं और सांस्कृतिक संस्थाओं में निश्चित किया जाता है जिसके परिपेक्ष कोई भी राष्ट्र अपनी विदेश नीति बनाता है राबर्ड ओस गुड मानते हैं कि राष्ट्रहित परिस्थितियों का ऐसा मूल्यांकन है जिससे राष्ट्र को लाभ हो वान डाइक राष्ट्रीय हित को ऐसा हित मानते हैं जिनकी रक्षा राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के साथ अपने संबंधों में करते हैं सबसे अधिक महत्व और आज अपने अस्तित्व को देता है वे अपनी भौगोलिक राजनीति और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना चाहता है और इसलिए अपनी सीमा को आक्रमण से सुरक्षित रखना चाहता है यह भी राष्ट्र के हित में है कि वे अपनी आवश्यकताएं पूरी करें जितनी चीजों को राष्ट्र अपने हित के लिए आवश्यक मानते हैं वह सभी उसके राष्ट्रीय हित होंगे राष्ट्रीय गीत की परिभाषा करते समय यह हम उससे नैतिक धार्मिक और परोपकार की धारणा से अलग नहीं करना चाहिए परंतु इन्हें राष्ट्रीय हित की परिभाषा में सम्मिलित मानना चाहिए राष्ट्रीय हित का विचार किसी भी राष्ट्रीय समुदाय के मूल्यों पर आधारित होता है हर राष्ट्र के हित अलग होते हैं और उनमें समयानुसार परिवर्तन भी होते रहते हैं परंतु राज्य सदैव अपने हितों की पूर्ति में लगे रहते हैं इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय हित सनातन और चिरंतन है उनमें कई कारणों से परिवर्तन हो सकते हैं जैसे जनसाधारण के मूल्यों में परिवर्तन राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की भावना आदि |
* राष्ट्रहित के साधन:-
राष्ट्रीय हित प्राप्त करने का सबसे प्रमुख साधन शक्ति है शक्ति की परिभाषा दो प्रकार से की गई है पहले प्रकार में वह किसी राष्ट्र की ऐसी क्षमता है जिसके द्वारा व अन्य राष्ट्र से ऐसा काम करा लेता है जिसके लिए वे तैयार ने हो या उस कीमत पर तैयार ने हो जो पहले राष्ट्र को मान्य हो दूसरे अर्थ में शक्ति परिणाम पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता है शक्ति के अन्य प्रकार है जैसे सैनिक, आर्थिक, या राजनैतिक, | परंतु उसकी चरम सीमा सैनी सकती है क्योंकि वह अंतिम निर्णायक है इसलिए जब सभी उपाय सफल हो जाते हैं तो राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित की पूर्ति के लिए अन्य राष्ट्र के विरुद्ध सैनिक शक्ति का उपयोग कर युद्ध की स्थिति निर्मित करते जा युद्ध करना इन्हीं कारणों से संभव न हो वहां युद्ध का वह दिखा कर काम निकाला जाता है यदि युद्ध एक अटल सत्य तो यह भी उतना ही सत्य की शांति की कामना हर राष्ट्र करता है और राजनेता सदैव एक घोषित करते हैं कि उनकी विदेश नीति का लक्ष्य शांति है |
( 1 ) शांति का साधन:-
अन्य कहीं विचारों की तरह शांति भी एक ऐसा विचार है जिसका अर्थ सुस्पष्ट और निश्चित नहीं है उसका उपयोग लोग भिन्न अर्थों में करते हैं कुछ लेखक मानते हैं कि यदि हिंसात्मक संघर्ष में हो अथवा संघर्ष प्रारंभ होने पर ही हिंसा वृहत रूप में ले तो उसे शांति का जाएगा यह शांति की न्यूनतम परिभाषा है इस में शांति को सैन्य शक्ति में संतुलित या पर्यायवाची बना दिया गया है इससे इसलिए भी नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि इस परिभाषा में केवल सैन्य शक्ति पर ही विचार किया गया है परंतु शांति की सही परिभाषा में सैन्य शक्ति के साथ-साथ राजनीतिक और सैद्वांतिक पहलुओं का भी समावेश होना चाहिए दूसरे वर्ग के लेखकों के लिए शांति के लिए केवल सैन्य संघर्ष का न होना ही आवश्यक नहीं है पर उसके साथ साथ ऐसी तीव्र राजनैतिक और सैद्वांतिक प्रतिद्व्न्दिता भी नहीं होनी चाहिए जिसके कारण एहसान ते हो सकती है इस वर्ग के लेखक शांति को स्तता का पर्यायवाची मान बैठे तीसरी श्रेणी में ऐसे लेकर के जो शांति को एक सकारात्मक विचार मानते हैं उनके अनुसार दूसरे वर्ग के लेखकों के अनुसार शांति का स्वरूप केवल नकारात्मक है -अशांति का न होना | तीसरे वर्ग में आने वाले लेखकों की मान्यता है कि यदि किसी समय वृहत चेन्नई संघर्ष अथवा राजनैतिक संघर्ष में भी हो रहा हो तो उस शांति की अवस्था नहीं माना जा सकता और क्योंकि ऐसी व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं रह सकती इसलिए इसे युद्ध की भूमिका मानना अधिक उचित होगा शांति तो ऐसी स्थिति है जिसे ऐसे सैनिक और राजनीतिक उद्वेलन उत्पन्न ही ने हो जो शांति भंग कर सके |
( 2 ) शांति का आकलन:-
यद्यपि शांति की परिभाषा भिन्न अर्थों में की गई है फिर भी उसे एक लक्ष्य के रूप में देखा गया ऐसे साधन के रूप में नहीं जिसके द्वारा अन्य लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है इसके विपरीत युद्ध को यह लक्ष्य के रूप में स्वीकारा नहीं गया एक वह एक साधन है जिससे दूसरे लक्ष्यों की प्राप्ति होती है युद्ध का उद्देश्य दूसरे राष्ट्र के बलपूर्वक अपनी बात मनवाना है इसके सिवाय उसका उद्देश्य प्रतिष्ठा या शक्ति से अभिवृदि भी हो सकता है शांति अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एकमात्र लक्ष्य नहीं है इसके लिए जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अन्य लक्ष्यों को शांति से ऊपर प्राथमिकता दी जाती है तो राष्ट्रीय युद्ध का मार्ग अपनाते राज्यों के बीच युद्ध होते हैं यही इस बात का परिणाम है कि शांति सर्वोच्च लक्ष्य नहीं है |
( 3 ) शक्ति की महत्ता- युद्ध का संदर्भ:-
शक्ति की भूमिका अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में अभी भी महत्वपूर्ण है पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पूर्व, और दक्षिण और दक्षिण के देशों के संबंधों में युद्ध और युद्ध काव्य दोनों का ही महत्व है | मध्य अमेरिका के राज्यों के विरुद्ध सैन्य शक्ति का उपयोग करने में अमेरिका कभी पीछे नहीं रहा पूर्वी यूरोप के देशों मे सोवियत संघ अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करता रहा है अफगानिस्तान में रूसी सेना ने नौ वर्षों तक लड़ती रही और नौ वर्षों से चलने वाला ईरान _इराक युद्ध 1988 मैं ही समाप्त हुआ 1950 मैं कोरिया में युद्ध 30 वर्षों तक चलने वाला वियतनाम का युद्ध चीन और वियतनाम युद्ध को जो 1979 मैं लड़ा गया भारत चीन युद्ध और भारत पाकिस्तान तीसरी दुनिया के बड़े युद्ध हैं और तीसरी दुनिया के देशों के बीच यह सबसे ज्यादा युद्ध हुए इन युद्धों में हम यदि गोरिला युद्धों को भी शामिल कर ले तो युद्ध की भूमिका अंतरराष्ट्रीय संबंधों में और भी व्यापक दिखाई देने लगेगी सैनिक शक्ति के उपयोग की चेतावनी बार-बार दी गई है कभी खुले तौर पर और कभी प्रछनन तौर पर जब पश्चिम एशिया के तेल निर्यात करने वाले देशों ने उसका उपयोग राजनैतिक दबाव डालने के लिए किया तो तत्कालीन सेक्टरी ऑफ स्टैंड हैंग्री किसीजर ने इन देशों को 1963 चेतावनी दी |
(4 ) अंतरराष्ट्रीय सहयोग का साधन:-
इन घटनाओं के बावजूद भी हम यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में युद्ध की संभावनाएं कुल मिलाकर घटी है बढा नहीं | पश्चिमी यूरोप के देशों के बीच युद्ध का खतरा हमें दिखाई नहीं देता ने ही यह देश एक दूसरे के विरुद्ध संभावित युद्ध की तैयारी में लगे हैं इसी प्रकार अमेरिका और कनाडा के बीच सर्दियों से युद्ध का यह साधन के रूप में उपयोग असंभव सा लगता है विश्व के इतने बड़े भूभाग के लिए शांति एक स्थायी अवस्था बन गई है अन्य देशों में भी शांति और विकास के बीच गहरा संबंधों के बारे में चेतना बड़ी है चीन का नेतृत्व में भी स्वीकार कर रहा है कि चीन ने अपनी विदेश नीति में युद्ध के खतरे को बढ़ा चढ़ा कर देखा है वास्तविक रूप में चीन पर आक्रमण की संभावनाएं कम थी इसलिए यदि चीन अपनी आरती प्रगति को तीर्य करना चाहता है उसे युद्ध की संभावनाओं पर अपने विचार करना पड़ेगा और अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना पड़ेगा | जब पहली बार अणु बम का विस्फोट हुआ तो उसे अंतिम शस्त्र की संख्या दी गई उस विस्फोट से एक अन्य युग का सूत्रपात हुआ |
( 5 ) पारस्परिक अंतरनिर्भरता:-
आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्र की पारंपरिक निर्भरता से अत्यंत अधिक वृद्धि हुई है आर्थिक संबंध तीन स्तरों पर हैं | द्विपक्षीक, क्षेत्रीय, और अंतरराष्ट्रीय | अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके अन्य संगठन मानव समाज के बीच बढ़ते सहयोग के प्रतीक हैं राष्ट्रीय हित का अर्थ राष्ट्र में रहने वाले सभी लोगों का हित इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहयोग महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है परंतु ऐसा नहीं है कि सहयोग में कोई विसंगतियां नहीं है विकसित और समृद्धि शील राष्ट्रों के बीच सहयोग की संभावनाएं अधिक होती है इसलिए जहां एक और विकसित राष्ट्रों के बीच सहयोग में निरंतर वृद्धि होती जाती है वहीं विकसित और विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ता है इसलिए दक्षिण के देशों के बीच पारंपरिक सहयोग की चर्चा होते हुए भी उनके बीच वांछित सहयोग नहीं हो पाता |
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