* तृतीय विश्व का अर्थ तथा लक्षण:-
तृतीय विश्व में गरीब व आर्थिक रूप से विकसित देश आते हैं यह देश इतनी अधिक संख्या में है कि यह कहना सरल होता है कि इनमें से कौन सा देश विकसित है और कौन सा नहीं तैरती है विश्व में महासागर के देश जापान ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड को छोड़कर एशिया के सभी देश तथा दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर सभी अफ्रीकी देश तथा कनाडा व अमेरिका के अलावा पश्चिमी गोलार्ध के सभी देश शामिल है कुछ सूत्रीकरण यूरोप के कुछ देशों को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को श्रेणी में रखते हैं इस प्रकार तृतीय विश्व की जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का 75% है सकल राष्ट्रीय उत्पादन के हिसाब से इसकी कुल वस्तुएं एवं सेवाएं विश्व में उत्पादन का केवल 20% प्रति व्यक्ति आमदनी के आधार पर तृतीय विश्व के लिए औसतन वार्षिक आय 2000 से कम नहीं होती जबकि प्रथम विश्व में द्वितीय विश्व में औसत वार्षिक आय से कहीं अधिक होती है हम उत्तर दक्षिण विवाद के बहुआयामी मुद्दों को समझ सकते हैं यदि हम इसकी नियंत्रण अविकसितता के उत्तरदाई कुछ तथ्यों को अलग करके देखें जो कि आज विश्व में कई देशों को दुर्दशा को दर्शाते हैं |
( 1 ) उच्च जनसंख्या वृद्धि |
( 2 ) आय का निम्न स्तर |
( 3 ) तकनीकी निर्भरता |
( 4 ) विकासशील देशों में दोहरापन |
( 1 ) उच्च जनसंख्या वृद्धि |
( 2 ) आय का निम्न स्तर |
( 3 ) तकनीकी निर्भरता |
( 4 ) विकासशील देशों में दोहरापन |
( 1 ) उच्च जनसंख्या वृद्धि:-
अमीर व गरीब देशों के बीच बढ़ते फासले के पीछे यह एक स्पष्ट कारण है अन्य चीजों के अलावा उच्च जन्म दर का अर्थ है कि विकासशील देशों में नौजवानों की जनसंख्या का अनुपात बहुत अधिक है तथा एक बड़े पैमाने पर बढ़ती शहरी जनसंख्या को उच्च स्तर की सुविधाएं प्रदान करने के अलावा हिंदी सॉन्ग को उत्पादकों को एक नई पीढ़ी तैयार करने के लिए अधिक संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है |
( 2 ) आय का निम्न स्तर :-
यह प्रमुख लक्षण है जो कि तृतीय विश्व को प्रथम व द्वितीय विश्व से भिन्न करता है आय के निम्न स्तर की वजह से दोषपूर्ण आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियां उत्पन्न होती है लेकिन निम्न आय गरीब देशों को भविष्य में आर्थिक बचत करने से बचाती है यह माना जाता है कि जब एक बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र में लगे होते हैं तो वास्तव में वे पूरी तरह से रोजगारो की श्रेणी मैं नहीं आते हैं कि श्रम शक्ति इस्तेमाल की सीमा रेखा से नीचे हैं यह सिर्फ कृषि क्षेत्र तक ही सीमित नहीं वरन उत्पादनो के सभी कारकों का कम प्रयोग गरीब देशों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख लक्षण है सिंगर तथा अन्सारी का सुझाव है कि आई वितरण काउच बढ़ती समानताएं तथा उपभोग में निवेश के प्रति रूपों में विकृतियां श्रम शक्ति के न्यूनतम प्रयोग के कारण प्रभाव है यह तत्व शिक्षा स्वास्थ्य परिवहन एवं ऋण सुविधाओं के क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश के लिए भी उत्तरदाई होते हैं देश के सामाजिक व आर्थिक ढांचे में पूंजी निवेश की कमी के कारण गरीब देश गरीबी रहते हैं तथा उनमें वे अमीर देशों के बीच फासला बढ़ आता रहता है |
( 3 ) तकनीकी निर्भरता :-
विकासशील देश अपने संसाधन निधि के लिए उचित स्वदेशी तकनीकी के विकास में योग्य नहीं सिद्ध हो पाए हैं तकनीकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे अमीर देशों पर आश्रित रहते हैं यह गरीब देशों में सबसे गरीब देशों के लिए एक सत्य है | तथा तृतीय विश्व के अपेक्षाकृत धनी देशों के लिए भी एक सत्य है इसमें तेल निर्यात देश भी शामिल हैं जिनकी अविकसित तकनीकी सामाजिक व आर्थिक वृद्धि व परिवर्तनों के मुख्य बाधक हैं तकनीकी विकास के असंतुलनो को निम्नलिखित रुप में उल्लेखित किया जा सकता है विज्ञान में तकनीकी पर पूरे विश्व में काव्य अमीर देशों के अंदर ही होता है तथा इन देशों की परिस्थितियों तथा साधन नीति के अनुकूल प्रणालियों द्वारा शोध व विकास इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए ही निर्देशित होते हैं यद्यपि गरीब देशों की समस्या उस प्रकार की नहीं है उदाहरण के लिए शोध की आवश्यकता उन सरल उत्पादकों के नमूने तैयार करने छोटे बाजारों के लिए उत्पादन विकास तथा अनुवृत्ति उत्पादकों के नए प्रयोगों के विकास व स्वरूप में सुधार करने के लिए होती है तथा सबसे अधिक शोध की आवश्यकता उत्पादन व्यवस्था के विकास करने के लिए होती है जो कि उनकी प्रचुर श्रम शक्ति का प्रयोग करने के लिए होती है इसके बजाय विकसित देशों में आधुनिक हथियारों अंतरिक्ष शोध अनुसार आधुनिक उत्पादकों ऊंचाई वाले बाजारों का निर्माण तथा निरंतर रूप से उन प्रक्रियाओं की खोज पर अधिक जोर दिया जाता है |
( 4 ) विकासशील देशों में दोहरापन :-
कुछ मिलाकर विकासशील देशों के सामाजिक व आर्थिक ढांचे में दोहरा पन पाया जाता है अधिकांश भारतीय विश्व के देशों में एक विशाल में निष्क्रिय क्षेत्र पाया जाता है जो कि एक छोटे आधुनिक व औद्योगिक क्षेत्र से जुड़ा होता है जिसमें कृषि क्षेत्र से श्रम शक्ति व पूंजी के रूप में औद्योगिक क्षेत्र में संसाधनों की आपूर्ति की मुख्य कड़ी का काम करती है औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि ग्रामीण क्षेत्र में सद्श विकास की प्रक्रिया में ना तो कोई भूमिका ही आधा कर पाती है तथा ने ही निष्क्रिय क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर पैदा कर पाई है विकासशील देशों के आर्थिक ढांचे में दौरा पड़ने का कारण उनका उपनिवेश ही अतीत है जबकि केंद्रीय शक्तियां अपने को निर्मित वस्तुओं का उत्कर्ष उत्पादक समझती थी तथा उपनिवेश खाद्य पदार्थों में कच्चे माल के उत्पादन का महत्वपूर्ण माध्यम समझ जाते थे विकासशील देशों में बेरोजगारों की संख्या के अनुमान भिन्न-भिन्न है लेकिन सभी आंकड़े एक ही स्थिति को दर्शाते हैं कि श्रम शक्ति के क्षेत्रों में बेरोजगारों की संख्या नई नौकरियों से कहीं अधिक ज्यादा बड़ी है गरीब देशों की अमीर देशों पर तकनीकी निर्भरता इसी दुविधा का परिणाम है क्योंकि औद्योगिक देशों में आधुनिक तकनीकी का विकास श्रम शक्ति पर नहीं वरन पूंजी पर आधारित है जो कि बेरोजगारों की दुर्दशा में सुधार लाने के बजाय उसे और बिगड़ने में सहायक होता है |
उत्तरी भाग के देशों को दक्षिण भाग के देशों से उत्पादकों के निर्यात के फल स्वरुप निर्भरता ने इस दूसरे पर निर्भर रहने वाली व्याख्या के विकास की प्रक्रिया को जन्म दिया है जिसे दक्षिण भाग के देशों में उत्तरी भाग के देशों के साथ सौदेबाजी की क्षमता बढ़ी है विश्व पेट्रोलियम बाजार में तेल निर्यातक उत्पादन करने वाले देशों के संघ के प्रभाव में यह स्पष्ट रूप से दर्शाया है विकासशील देशों को आपस में व्यापारिक साझेदारी कमजोर सिद्ध हुई है यद्यपि उतरी बाग के बाजारों में सभी स्पर्धा करते हैं जी से दक्षिण भाग के देश सॉन्ग की एकता को खतरा तो पैदा होता रहता है पर साथ ही साथ उनकी आंतरिक के विभिन्न ताई और अधिक मजबूत होती है विकासशील देश उत्तरी भाग के देशों के साथ व्यापार करने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं जबकि विकसित देश आपस में भी व्यवहार करना पसंद करते हैं विकासशील देश वस्तुओं के अंतरराष्ट्रीय भावों को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि विकासशील देशों को विकसित देशों के उत्पाद को व सेवाओं की आवश्यकता कहीं अधिक होती है जबकि विकसित देशों को विकासशील देशों के उत्पादकों की आवश्यकता नहीं होती है |
* तृतीय विश्व के देशों के लक्ष्य :-
तकनीकी निर्भरता एक ऐसा कारण है जिसके फल स्वरुप विकासशील देशों की विश्व में विकास की प्रक्रिया में स्थिति सबसे नीचे बनी रहती है श्रृंगार तथा अंसारी का तर्क है यदि तकनीकी के क्षेत्र में अंतर को खत्म नहीं किया जाता तो विकासशील देशों की अमीर देशों की अर्थव्यवस्था पर निर्भरता बनी रहेगी तथा किसी भी तरह की सहायता व्यापारिक रियासतें अनुदान तकनीकी सहायता तथा आकसिमक दाम वृद्धि कतई लाभ प्राप्त नहीं हो सकते हैं |
( 1 ) नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था :-
इन समस्याओं से निपटने के लिए सन 1970 के दौरान विकासशील देशों की नीतियों के अध्यादेश सामूहिक रूप से राजनीतिक क्षेत्र में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मांग के रूप में जाने जाते हैं यह एक ऐसी व्यवस्था की मांग है जो कि तृतीय विश्व के देशों को वर्तमान आर्थिक अंतरराष्ट्रीय संबंधों के ढांचे में विचित्र से मुक्त करती है तथा विश्व के अमीर तथा गरीब देश के बीच उपनिवेशवादी वह नव साम्राज्यवादी संबंधों की निरंतरता वाले ढांचे से मूलभूत रूप से भिन्न प्रकार की व्यवस्था की कल्पना करती है तृतीय विश्व के देश वर्तमान व्यवस्था को अपने साथ शोषण का माध्यम समझते हैं |
( 2 ) राजनीतिक स्वायत्तता :-
समता की प्रेरणा अर्थव्यवस्था तक ही सीमित न होकर राजनीति क्षेत्र को भी सम्मिलित करती है तृतीय विश्व के देशों के नेता यह नहीं चाहते कि विभिन्न उच्च स्तरीय बैठकों में उनकी भागीदारी को नजरअंदाज किया जाए वह चाहते हैं कि उन्हें अपने विचारों से दबाव डालने का पूरा अवसर दिया जाए तथा हमेशा उनका विरोध नहीं किया जाए कहीं इस धारणा के विरुद्ध की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को वर्तमान श्रेणी बंद संगठन के रूप में स्थापित किया जाए जिसमें कि कुछ औद्योगिक व तकनीकी रूप से शक्तिशाली में अमीर देश तथा बल प्रयोग की क्षमता वाले देश नीतियां निर्धारित करें और जिनमें दूरदराज के देशों की आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करने में मदद मिले हैं | नव उपनिवेशवाद वे नव साम्राज्यवाद के अर्थों में तृतीय विश्व के देशों ने आश्रित संबंधों के अवशेषों को तोड़ने का प्रयास किया है अधिकांश देशों ने इस भय की वजह से पूर्व पश्चिम के संघर्ष से अलग रहने का दढ़ विश्वास भी प्रदर्शित किया है |
( 3 ) गुटनिरपेक्षता :-
तृतीय विश्व के देशों में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत सन 1955 से हुई थी जब अमेरिका तथा एशिया महाद्वीपो के 29 देशों ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का माध्यम ढूंढने के लिए बांडुंग मैं अपनी बैठक की थी सन 1966 में विश्व को विभाजित करने वाले विवादों पर हाथ से अपने करने के सिद्धांतों पर जोर डालते हुए अफगानिस्तान के एक नीति प्रवक्ता ने गुट निरपेक्षता की अवधारणा को परिभाषित किया अफगानिस्तान सभी देशों के साथ मंत्री पूर्ण संबंध रखना चाहता है तथा राजनैतिक बेचैनी संगठनों में में शामिल होने की नीति अपनाना चाहता है निरपेक्षता के सिद्धांतों का पालन हमारे देश के दिया अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णय लेने का मुख्य आधार होगा |
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