* क्षेत्रीय सहयोग की मान्यता:-
क्षेत्रीय सहयोग की ओर स्पष्ट प्रवृतियो का इस तथ्य से मूल्यांकन किया जा सकता है कि राष्ट्र व्यवस्था परिवर्तन की स्थिति में है तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए प्रतिरूप उत्पन्न हो रहे हैं अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रवाद तथा क्षेत्रीय व्यवस्था कर्मों के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं उदाहरण स्वरुप अमेरिकी देशों का संगठन, अटलांटिक संधि संगठन, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, पारंपरिक आर्थिक सहायता परिषद, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन, दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्र समुदाय, तथा अन्य | इस तरह के संगठनों को स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर मान्यता मिलती है द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद विश्व व्यवस्था में तनाव व्याप्त था शक्ति संघर्ष का स्वरूप भी बिंदास साथ ही साथ युद्ध अभिशप्त विश्व में जो चौमुख विकास की आवश्यकता थी इन्ही प्रसंगिक जरूरतों ने क्षेत्रीय सहयोग को आधार प्रदान किया / पर विरोधी विश्व में प्राकृतिक संसाधनों को यह करने की आवश्यकता थी इतने समय के बाद ऐसा प्रतीत होता था कि सदियों पुरानी राष्ट्र व्यवस्था क्षेत्रीय समूह की ओर विकसित हो रही है जिससे यह अधिकार विकल्प की संभावनाएं भी प्रतीत होती थी |
* क्षेत्रीय सहयोग के उपागम:-
सिद्धांत कारों के दो प्रमुख समूह है पहले समूह के सिद्धांत कारों द्वारा शक्ति प्रतिक्रियाशील तथा राजनीति के विकसित वर्ग के नियंत्रण इत्यादि राजनीति चारों पर ध्यान दिया जाता है यह समूह बहू वार्ड तथा संघवाद जैसे दो प्रभावों से निरूपित किए जा सकते हैं दूसरा समूह सहयोग के आधार के लिए आर्थिक सामाजिक तथा तकनीकी कारकों पर केंद्रित है उनका मानना है कि यह कारक अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक परिवर्तन में सहायक होते हैं अब हम अंतरराष्ट्रीय एकीकरण की वैचारिक परंपराओं की विवेचना करेंगे जिन्होंने शिक्षाविदों तथा राजनेताओं को यह सम्मान प्रभावित किया है |
( 1 ) संघवाद:-
प्राचीनतम तथा सर्वोत्तम समझी जाने वाली परंपरा संघवाद एक विधि वादी उपागम है जो कि आवश्यक रूप से राज्य के प्रतिमान पर आधारित है इसका उद्देश्य एक आधी राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करना है जिसके पास सदस्य राष्ट्रों की सामूहिक सुरक्षा आंतरिक सुरक्षा तथा आर्थिक विकास जैसी जरूरतों की संतुष्टि के लिए पर्याप्त राजनीति सत्ता तथा बल प्रयोग की सकती हो तथा जो साथ ही साथ सहयोगी देशों को व्यक्तिगत पहचान तथा क्षेत्रीय स्वायत्ता बनाने के योग्य बनाए रे एकीकरण की प्रक्रिया के परीक्षण के लिए संघ वादी मुख्य रूप से शक्ति वे समझौते जैसे राजनीतिक तत्व पर विश्वास करते हैं स्थिति के विरुद्ध स्वरूप की विवेचना के बजाय इसको स्वीकार किया जाता है तथा इसकी हिमायत भी की जाती है |
( 2 ) बहुलवाद :-
पहले समूह का दूसरा उपागम संघवाद से कुछ पहलुओं में भिन्न है एक ही काटते राजनीतिक समुदाय स्वतंत्र राज्यों की व्यवस्थाएं जो की बहू वादियों के मत में किसी अधिराष्ट्रीय सत्ता द्वारा शासित नहीं होती | इस स्कूल के मुख्य प्रतिपादन काल डायर्च के अनुसार यह मित्रता संचार व परस्पर संबंधों से इस हद तक बंधी होती है कि यह संघर्ष समाधान प्रक्रिया के रूप में इसके द्वारा गृह युद्ध या प्रथक वाद को रोकने की क्षमता पर निर्भर करती है यह राजनीति समुदाय की सफलता व्यापार के प्रतीरूप, जन गतिशीलता संचार तथा औपचारिक व अनौपचारिक दीक्षित वर्कर के परस्पर संबंधों जैसे कारकों वाले माध्यम पर टिकी होती है काफी हद तक इस तरह का आदान-प्रदान तीव्र स्थायित्व तथा परस्पर रूप से लाभप्रद हो तो यह हकीकत व्यवस्था की सूचना आत्मक बंधनों को मजबूत करते हैं तथा स्थाई तथा प्रभावी बनाते हैं सामान्यता एकीकरण की बहू वादी अवधारणा की अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा व शांति की प्राथमिकता तथा राजनीति का कूटनीतिक नीति वाद संबंधों के साथ सहयर्च जैसे दो अत्यधिक महत्वपूर्ण आधार है नीति निर्धारकों में बहू वादी विचारधारा को आधी स्वीकार किया जाता है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था व स्थायित्व को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के साथ संयुक्त करती हैं |
* क्षेत्रीय सहयोग के आर्थिक एवं तकनीकी कारको पर आधारित प्रवृतियां :-
आर्थिक एवं तकनीकी कार को पर जो डालने वाले दूसरे समूह के सिद्धांत का भी दो प्रवृत्तियों द्वारा निरूपित किए जा सकते हैं |
( 1 ) संरचनावादी तथा | ( 2 ) नवसंरचनावादी |
( 1 ) संरचनावादी :-
फंक्शनलिस्ट अंतरराष्ट्रीय समुदाय की गैर राजनीतिक कार्यवाहियो पर अधिक जोर डालते हैं यदि व्यक्ति समूह या राज्य किसी उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तथा वह पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण है तो उन्हें उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग करने की जरूरत होती है जिसके फलस्वरूप ही यह प्राप्त हो सकता है यदि लक्ष्य पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण है तो वह एक दूसरे के साथ कार्य करेंगे तथा इस प्रक्रिया में दवदवो का समाधान करेंगे इस व्यवस्था कर्म के तहत एकीकरण की प्रक्रिया सरकारों के बीच यदि राष्ट्रीय स्तर पर ही आरंभ की जा सकती है जो सीमाओं के ऊपर हितों के प्राकृतिक समय तथा क्रियात्मक संगठनों का निर्माण कर सकते हैं यह संगठन क्रियाशील शांति व्यवस्था या एक दूसरे पर आलिम होते हैं तथा सभी आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का दक्षता पूर्वक इस तरह समाधान करते हैं कि संघर्ष के लिए कदापि स्थान न रहे | जैसे संपादन करने वाले कार्यों का स्वरूप बदलता है वैसे ही ढांचे का विकास तथा रूपांतरण किया जा सकता है इस तरह के संगठन की सीमाएं राज्य द्वारा नहीं वरन कार्यात्मक ता के आधार पर निर्धारित की जाती है यह उल्लेख किया जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों के नमूने फंक्शनलिस्ट उपागम के आधार पर बनाए गए थे जिसमें युद्ध के दौरान संबंधित शक्तियों के बीच सहयोग के अनुभवों को भी स्वीकार किया गया था |
( 2 ) नवसंरचनावादी :-
नवसंरचनावादी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक एकीकरण में प्रभाव सीएल यह अपेक्षाकृत एक नया उपागम है इसे यूरोपीय आर्थिक समुदाय से अधिक गति वे समर्थन मिला है पिछले दो दशकों के दौरान अमेरिका में राजनीतिशास्त्र विषय के विकास से इसके सैद्वांतिक व्याख्यात्मक ढांचे पर अधिक प्रभाव पड़ा है सन 1950 में यूरोप के कोयला तथा स्टील समुदाय का गठन इस उपागम को नजीर प्रदान करता है युद्ध की प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए भलाई पर अधिक जोर दिया जाता है | उनके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय की करण के प्रयासों ने बल वे और फिर आने की राजनीति को अनावश्यक किया है उनका मानना है कि हित समूह नौकरशाही तकनीकी नौकरशाहों तथा अन्य इकाइयों के पर्याय एकीकरण के माध्यमों का निर्माण करते हैं | इस प्रकार एकीकरण के सिद्धांत की व्याख्या से यह पता चलता है कि यद्यपि चारों उपागम में विश्लेषण के संबंध में विभिन्न दाएं रखते हैं परंतु यह कुछ हद तक की अनुपूरक होती है यह यथार्थ में विभिन्न पक्षों से संबंधों में राज्यों की वरीयता के बारे में सम्मान धारणाओं के बाल स्वरूप संघ वादी तथा बहु वादी विचारों के एकदम भिनन निष्कर्ष पर पहुंचते हैं |
* अंतरराष्ट्रीय संबंधों का बदलता परिदृश्य:-
विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है तथा उनकी क्रियाशीलता का दायरा भी तेजी से बदला है इस विकास के मुख्य कारणों में अंतरराष्ट्रीय कार्य वालों का केंद्र बिंदु इस प्रक्रिया में यूरोप से हट कर दो महा शक्तियों की तरफ तथा आर्थिक रूप से अफ़्रीका एशिया तथा लेटिन अमेरिका की तरफ हुआ है अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों के केंद्र का परीक्षण तथा राष्ट्र की बढ़ती संख्या ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की युति की इनकी आवश्यकता को और अधिक आवश्यक किया है इन बढ़ती जटिलताओं ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से नियंत्रण केंद्रों को सहज करने वाली बराबरी की प्रेरणा को पैदा किया है | सन 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य युद्ध की रोकथाम तथा सदस्य राष्ट्रों में या याचिक समाधान में विचार-विमर्श के लिए व्यवहार मंच प्रदान करना था |
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