Tuesday, 12 November 2019

महात्मा गांधी का विश्व दृष्टिकोण एवं आंतरिक स्वराज्य तथा सामाजिक सदभाव तथा शैतानी आधुनिक सभ्यता


* भारतीय चिंतन परंपरा तथा हिंदू विश्व दृष्टिकोण का बोध:-

                                                                                                                                     महात्मा गांधी ने अपने सामाजिक दर्शन अथवा विश्व दृष्टिकोण पर कोई विधान नहीं रचा व्यक्ति के समाज से संबंध की समस्या उनके चिंतन व्याकरण में केंद्रीय इस्पात का उद्देश्य व्यक्ति व समाज विशेष गांधी जी के विचारों का परीक्षण है यह परीक्षण गांधी जी के लिखे हुए बोले शब्दों तथा उनके कर्म के आधार पर किया जाएगा उन्होंने किसी भी श्नण  यह नहीं बुलाया कि व्यक्ति अनिवार्य रूप से एक सामाजिक प्राणी है व्यक्ति व समाज के विषय में गांधी जी के विचार उनके धार्मिक विश्वास वे स्वयं समाज के विषय में गांधी जी के विचार उनके धार्मिक विश्वास में गहरे पैठे हुए है | इसलिए वे जब व्यक्ति के सामान्य प्राणी होने की बात करते हैं तो इस संदर्भ में वह व्यक्ति की सृष्टि तथा ब्रह्मांड से अनिवार्य एकता की चर्चा करते हैं क्योंकि उनका कहना है कि हम एक ही ईश्वर से पैदा हुए हैं और ऐसा होने के कारण किसी भी रूप में प्रकट समस्त जीवन अनिवार्यता एक हैं यह स्थिति हमें तुरंत उस उपनिषद के चिंतन से अंतरंग कराती है जिसमें ईश्वर तथा वैयक्तिक आत्मा को तत्वमसि  के रूप में उद्घाटित किया गया है | यह गांधीजी के विश्व दृष्टिकोण की मूल आत्मा है जो समाज प्रकृति तथा अंतिम यथार्थ से व्यक्ति के संबंधों की अवैध विचारधारा पर आधारित है | गांधीजी के विश्व दृष्टिकोण में हमारी समझ के क्षितिज हमारे समस्त विश्वासों व्यवहारों बल्कि समस्त जीवन की सीमाओं तक फैले हुए यह विस्तार ने केवल मानव जीवन बल्कि समस्त संवेदन समर्थ जीवो क्योंकि समस्त जीवन एक ही सर्वभौमिक स्रोत से प्रकट होता है इस विश्व दृष्टिकोण में जो कुछ सत्य अथवा वास्तविक हैं वह घटनाओं की प्रवृत्ति से अभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है सत्य का अभिप्राय उस तत्व से जो वास्तविक में घटित से संगत हैं यह दृष्टिकोण चीज या तत्व को उस व्यक्ति के संबंध में देखता भागता है जिसे भाग अथवा अंश के रूप में स्वीकार किया जाता है इस प्रकार गांधीजी इतिहास के प्रति आभार शुद्ध रूप से अति सरल वादी दृष्टि अपनाते हुए उस राजाओं महाराजाओं के क्रियाकलापों का कालक्रम एक वरदान मानते हैं उस दुनिया की लड़ाई य का विलय स्वीकार करते हैं तथा उसे प्रत्येक अवरोध का एक ऐसा लेखा-जोखा मानते हैं जो आत्मबल अथवा प्रतिबल की सेज क्रियाशीलता को प्रभावित करता है इतिहास की अपेक्षा करते सजनवा दी व्याख्या का मूल सवार उसके इस विश्वास पर आधारित है कि मानव समाज एक के विकास से अध्यात्म के संदर्भ में यह पलवल उनका यह तर्क है कि यदि उत्कर्ष नहीं होगा तो अपरिहार्य रूप से अब कर्ज होगा गांधी जी का यह मत है कि मानव इतिहास में प्रगति बहुत गर्मी है प्रेम के परिचालक से संभव हुई है आपने सार में समस्त जीवन एक है तथा ब्रहमांड तथा मानवता संग्रह संपूर्ण गांधीजी के अनुसार पारंपरिक इतिहास का मूल तत्व केवल नाम रुपए और ऐसा होने के कारण घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करने वाला इतिहासकार मानव इतिहास के सकारात्मक तथा सर्व भौतिक लक्ष्य से विचलित हो जाता है | 

* अंतर्निर्भरता तथा आत्म - निर्भरता :-

                                                                                          मानवता की सेवा का यह विचार ने केवल सभी व्यक्तियों की अपरिहार्य असिमता की  अवधारणा से पैदा हुआ है बल्कि वे इस भूमिका से भी परगट है कि व्यक्ति का विकास प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि उसी व्यक्ति से अंतत समाज बनता है इस संदर्भ में गांधी जी की 6 दष्टि में व्यक्ति तथा समाज के सामान्य को उन से केंद्रित केंद्रों के रूप में दर्शाया गया है जिसमें जीवन को ही ऐसा शीर्षक नहीं होगा जो नीचे के आधार पर टिका हुआ हो जीवन एक ऐसा सामूहिक व्रत होगा जिसका केंद्र बिंदु व्यक्ति गांव के बहुत केंद्रों के लिए मिटने को सदैव तत्पर होगा जीवन को कठोर विभाजक खंडों में नहीं बांटा जा सकता गांधीजी की यह दर्द मान्यता थी कि सभी व्यक्ति भाई भाई हैं और उन्होंने सभी में इस भ्रातृत्व भाव को विस्तार दिया जहां बल सदैव व्यक्ति तथा समाज के बीच सहयोग पर दिया गया ने की संघर्ष और तनाव पर यह सद्भाव स्थापित किया जा सकता है समाज पर यह निर्भरता बंधन अथवा दास्तां नहीं है बल्कि वे तो मानवता की सेवा के आदर्श की सभी करती है इस सेवा की देश निर्मित सीमाओं के परे कोई हद नहीं है वे सीमित हैं इसके अतिरिक्त समाज पर निर्भरता से संबंधित गांधी जी का यह विचार उनके सच्चे लोकतंत्र के अंदर से भी जुड़ा हुआ है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति सभी को सम्मान मानते हुए उन्हें प्रेम के रेशमी जाल में लिपटा हुआ ग्रहण करता है गांधीजी ने अक्सर यह स्पष्ट किया है कि उनके द्वारा इंगित इस आदर्श प्राप्ति का मार्ग नैतिक तथा आध्यात्मिक अनुशासन से सुगम  होता है की आधुनिक सभ्यता में आध्यात्मिक विकास तथा नैतिक साध्य की इच्छा में क्या तत्व अथवा पर पर प्रवृत्तिया अवरोधक हैं है तथा हमारे समय के संकट के मूल में क्या है उनके अनुसार व्यक्ति पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अपनी सामाजिक निर्बलता के प्रति सचेत हो गया है वे निर्भरता की इस अनुभूति को सार्थक पूंजी के रूप में नहीं ग्रहण करता है | 

* आंतरिक स्वराज्य तथा सामाजिक सदभाव :-

                                                                                                            यह गांधीवादी योजना उनके स्वराज के सिद्धांत पर आधारित है जो कि अपनी व्यापक अर्थ व्यंजना में दूसरे देशों के वैशेषिक  विचारों तथा आदेशों के तीव्र प्रवाह  से स्वतंत्रता  का आग्रह करता है | मैं उन्हें केवल उतना ही स्वीकार करूंगा जितना कि मैं भारतीय संदर्भ में आत्मसात कर सकूंगा लेकिन मुझे उनके आधिपत्य को तो अस्वीकार करना ही होगा इसका अर्थ है आंतरिक इतिहास तौर तरीकों तथा शक्ति सामर्थ्य के बूते राष्ट्र निर्माण का प्रयास और इसलिए इसमें विदेशों विदेशी पूंजी तथा विदेशी प्रार्थी की से आयातित सांजो  सामान पर अत्यधिक निर्भरता से स्वतंत्रता  सम्मिलित हैं | सर्वोदय त्याग तथा सामाजिक सद्भाव पर गांधी जी द्वारा दिए गए बल के फलस्वरूप अनेक पर्यवेषक उन्हें व्यक्तिवाद का विरोधी मानते हैं दार्शनिक बी. के. मलिक ने वस्तुतः व्यक्तिवाद पर कुठाराघात कि गांधीजी की दृष्टि का स्वागत किया है और तंतुउपरांत उन्होंने भारतीय समूह सभ्यता तथा पश्चिमी मानववाद की दवेत हताशा का वर्णन किया है यह एक ऐसी हताशा थी जो गांधीजी के जीवन और निधन में प्रकट हुई और जिसे एक ऐसे युग का प्रारंभ हुआ जो इन विरोधाभासो  के परे था | स्वयं गांधी जी की अंतिम हताशा तथा निधन को इन विरोधाभासी सिद्धांतों की पारंपरिक हताशा  के प्रतीक रूप में ग्रहण किया जाता है इससे द्वैतवाद  पर बल देने के दौरान मलिक गांधी जी के जीवन तथा विचारों के अस्तित्व वादी पक्षों पर विचार नहीं कर सकते गांधीजी के अनुसार इस आतम सुधार की प्राप्ति व्यक्ति के अधिकार संबंधी किसी भी दावों से पहले अवश्य के एक बार ऐसा हो जाए तो संभवत व्यक्ति वे समाज के हितों में कोई संघर्ष ही नहीं प्रकट होगा इसके अतिरिक्त घर में भी समाज को एकता की ऐसी आवश्यक मात्रा उपलब्ध कराता है जिसमें हितों की विविधता समाहित होती है इस संदर्भ में गांधी जी की यह मान्यता है कि कोई व्यक्ति को मर्यादाओं से स्वतंत्रता का मार्ग चुनता है | 

* असिमता बनाम अलगाव :-

                                                              गांधीजी के जीवन के प्रति दृष्टिकोण का यह एक मौलिक प्रतिमान है | इसके साथ ही गांधीजी के उस विश्व दृष्टिकोण तथा सभी की एकता अवधारणा से भी जुड़ा हुआ है जो की हिंदू सांस्कृतिक परंपरा में रची पगी हुई है | गांधी जी का चिंतन भारतीय संगीत से तुल्य है जिसमें समस्त आरोह अवरोह तथा सुर -वैविद्य  एक ही राग से बंधे होते हैं और मूल सबर सदैव यथावत रहता है गांधीजी का मूल स्वर यह विश्वास है कि जीवन अपने शहर में एक है तथा सार्वभौमिक जीवन शक्ति तत्काल ई सर्वव्यापी तथा आत्मोत्कर्षकारी है | सभी मनुष्यों की सर्वव्यापी एकता के इस गांधीवादी विश्वास को अक्सर उस समय यह कसौटी पर कसा गया जब गांधी जी को वैयक्तिक क्रियाओं तथा सामाजिक व्यवस्था में अंतर्निहित संतों के व्यवस्थित होने से उत्पन्न संघर्षों की समस्याओं को झेलना पड़ा उस स्थिति में भी उनका यह दृढ़ मत तथा  विश्वास था कि आध्यात्मिक एकता हर हाल में एक ऐसी ठोस आधारशिला प्रदान करती है जो व्यक्तियों के चिंतन तथा कर्म को संबंधित करती हैं ऐसी पुनरावृति समस्याओं के समाधान के लिए गांधीजी के पास सत्याग्रह एकमात्र साधन था या यह स्पष्ट किया जा सकता है कि मालर्स की भांति गांधीवादी चिंतन का भी यह निहितार्थ था कि भारतीय समाज की व्याख्या के लिए एक विकसित सिद्धांत की आवश्यकता है मार्शल ने भी व्यक्ति के रूप में मनुष्य तथा समाज की अवधारणा के बीच सामंजस्य स्थापित करने की समस्या का सामना किया था उसका यह तर्क था कि समाज को एक अमूर्त निर्मित के रूप में नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि उस स्थिति में वह व्यक्ति के रूप में मनुष्य से संघर्षरत प्रथम व द्वितीय सत्ता के रूप में प्रकट होगा व्यक्ति के रूप में मनुष्य तथा प्रजाति के रूप में मनुष्य अलग नहीं है वस्तुतः मनुष्य वैयक्तिक मनुष्य है ही नहीं वह तो प्रजातीय प्राणी होते हैं सामाजिक होना इस प्रकार मनुष्य की एक अंतर्निहित विशेषता बन जाता है वही उसका जातिगत चरित्र प्रगट होता है अत मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के गुण धर्म को मार्शक में व्यक्ति की जातिगत प्रकृति माना है क्योंकि यह प्रकृति वास्तव में मनुष्य को समाज के सदस्य रूप में अंगीकार करती है इससे विभिन्न समाजों में अंतर करने की क्रिया जटिल हो जाती है क्योंकि सामाजिक प्राणी होने का गुणधर्म प्रत्यय मनुष्य में अंतनिहित है वे इसे समाज के सदस्य रूप में सहज प्रक्षेपित करता है तथा ऐसा करते हुए वे अपने सामाजिक अस्तित्व की पुष्टि करता है यह प्रजाति तथा समाज में एक ही काट मनुष्य की यह प्रतिमा मृत्यु द्वारा झकझोरी जाती है जो कि मनुष्य को यह व्यक्ति के रूप में अलग दर्शाती है | 

* शैतानी आधुनिक सभ्यता:-

                                                                   गांधीजी की चिंता का मूल के अंदर जाती है और यह विचार कि वे अपनी असिमता अक्षुण रखते हुए सभी की अंतिम निर्भरता के अनुरूप क्रियाशील हो वस्तुतः उसके आध्यात्मिक व्यक्तिवाद पर आधारित है गांधीजी के प्रतिकार का बिंदु यूरोपीय व्यक्तिवाद उतना नहीं है जितना कि यूरोपीय सभ्यताएं गांधीजी यूरोपीय सभ्यता के प्रतिरोधी हैं क्योंकि उसने अपने भ्रष्ट कारि प्रभाव से व्यक्ति की मानसिक तथा नैतिक उन्नति को अवरुद्ध किया है अपनी कृति हिंदू राज्य में गांधीजी दृढ़पूर्वक यह कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता ने व्यक्ति के दिल और दिमाग को आक्रांत  किया है तथा उसे कपड़ा मकान में फैक्टरी में कैद कर दिया है पश्चिम में औद्योगिक सभ्यता के प्रभाव में व्यक्ति पर जो कुछ भी घटित होता है उसकी व्याख्या किसी लेखक ने इस प्रकार की है जो कि औद्योगिक सभ्यता की उपज है तथा जो लाखों करोड़ों की पीठ पर केवल कुछ को चढ़ - बैठने का अवसर प्रदान करती है तथा संपत्ति के केंद्रीयकरण को बढ़ावा देती है गांधीजी कहते हैं एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि मशीनरी मानवता की समस्त जरूरतों को पूरा कर सकती है फिर भी उससे कुछ विशेष क्षेत्रों में उत्पादन तो शगन होगा यह तथा इससे भारी उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा | 

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