* उपयोगितावाद का मूल अर्थ :-
उपयोगितावाद, व्यक्तिवाद /उदारवाद का ही एक स्वरूप है जो 18 वी सदी मे बेंथम ( 1748- 1832 ) के चिंतन में प्रस्फुटित होकर, जॉन स्टुअर्ट मिल ( 1806 - 1873 ) के चिंतन में पूर्ण रूप से विकसित हुआ | उपयोगितावाद व्यक्ति के सुख को साधा मानकर, राज्य को अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख को उपलब्ध करने का साधन मात्र मानता है |
* सुख वाद का सिद्धांत:-
बेंथम का कहना है कि प्रकृति ने मानव को दो सर्वोच्च शक्तियों के शासन में रखा है - सुख और दुख | इन्ही को...... हम सभी निर्णयों का और जीवन के सभी संकल्पों का आधार मानते हैं सुख प्राप्त करना और दुख की उपेक्षा करना | यही जीवन का उद्देश्य है अत : यही उद्देश्य नीतियों एवं विधायकों के चिंतन का प्रमुख बिंदु है उपयोगिता का सिद्धांत इन्ही दो उद्देश्यों के प्रति सब कुछ निछावर कर देता है |
* उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं:-
( 1 ) उपयोगिता का सिद्धांत सुखवाद का सिद्धांत है | सुखवाद यह मानता है कि मानव को सुख-दुख की अनुभूति संवेदनशील नाडियो के माध्यम से अथवा अनुभवों के आधार पर होती है विचारों का उद्गम हमारी एषेणाए अथवा अनुभव है |
( 2 ) उपयोगिता का सिद्धांत मात्रा संबंधी सुख वाद का सिद्धांत है इसका तात्पर्य यह है कि सुख दुख का मापदंड मात्रा है न की गुण | अत: वही कार्य ग्रहण है | जिनके परिणाम स्वरूप व्यक्ति को मात्रा में अधिक सुख मिलता होने की जिसके करने से उच्च प्रकार का सुख मिलता हो |
( 3 ) और यदि सुख दुख का मापदंड मात्रा है * नहीं तो निश्चित ही किसी भी कार्य को करने से इतनी मात्रा में सुख मिलता है यह मालूम किया जा सकता है| बेंथम मैं सुखों की मात्रा मापने के लिए एक नैतिक समाकलन भी प्रस्तुत किया है इस समाकलन मैं सात घटक हैं दूसरे शब्दों में किसी भी कार्य को करने से इतना सुख दुख प्राप्त हो सकता है इसका निर्धारण नैतिक समाकलन के निम्न घटकों के आधार पर किया जा सकता है |
( 4 ) उपयोगितावाद कार्य के परिणाम पर अधिक ध्यान देता है ने की कार्य करने के मनोभाव पर | परिणामों में भी प्राथमिक परिणाम से सहायक परिणाम अधिक महत्वपूर्ण होता है और विधि -वेताओं को कानून बनाते समय सहायक परिणामों पर अधिक ध्यान देना अपेक्षित है उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के घर चोरी हो जाए तो उससे जो पीड़ा होगी वह चोरी का प्राथमिक परिणाम है किंतु इस चोरी से सभी पड़ोसियों को अपने घर में भी चोरी होने की संभावना से जो दुख होगा वे इसका सहायक परिणाम है |
( 5 ) यह प्रश्न उठता है कि उपयोगितावाद का सिद्धांत किसके सुख की अपेक्षा करता है की जाती केवल अपने ही व्यक्तिगत सुख की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है किंतु साथ ही बेथम यह भी मानते हैं कि व्यक्ति को अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख का प्रयास करना चाहिए और अंत में उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि व्यक्ति को अधिकतम संभव सुख के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए |
( 6 ) व्यक्ति को अपना व्यवहार किस प्रकार नियंत्रित करना वांछनीय इस संबंध में उपयोगितावाद का आग्रह की सही कार्य है जो करते हुए की भावना से नहीं बल्कि सुख की भावना से प्रेरित होकर किया जाए | क्योंकि बेथम अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख या अधिकतम संभव सुख की धारणा को मानते हैं किंतु इस प्रकार के कार्य के परिणाम स्वरूप अधिकतम व्यक्तियों का सुख अथवा अधिकतम संभव सुख ही उपलब्ध होता है बेंथम की दंड व्यवस्था की अवधारणा ऐसी चिंतन पर आधारित है |
( 7 ) बेंथम का आग्रह है की उपयोगिता का सिद्धांत एक सार्वभौमिक सत्य है दूसरे सभी सिद्धांत सुख वादी सिद्धांत के आवरण में छिपे हुए मुखोटे मात्र है यदि केवल और केवल सुख की आकांक्षा से ही कार्य करता है अत : आत्म - त्याग अथवा सन्यासवाद मैं भी सुखवाद छुपा हुआ है |
* बेंथम का राज्य सिद्धांत:-
राज्य की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न सिद्धांत प्रचलित है कुछ राजनीति शास्त्री राज्य को ईश्वर कृत, कुछ मानव निर्मित मानते हैं तो कुछ इसका विकासवादी आधार मानते हैं बेंथम के अनुसार राज्य मनुष्यों की आवश्यकताओं को करने का साधन है और मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता सुख की प्राप्ति है राजनीतिक दायित्व का भी यही आधार है - नागरिक राज्य की आज्ञा का इसलिए पालन करते हैं क्योंकि राज्य अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्रदान करता है | जो अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्रदान करने के लिए होती है किंतु राज्य अन्य संस्थाओं इससे दृष्टि से भिन्न है कि केवल राजनीतिक नियंत्रण ही बंधनकारी है और राज्य राजनीति नियंत्रण का सीत्र है |
* बेंथम के चार नियंत्रण:-
( 1 ) भौतिक नियंत्रण
( 2 ) नैतिक नियंत्रण
( 3 ) धार्मिक नियंत्रण
( 4 ) राजनीतिक नियंत्रण |
* उपयोगितावाद में परिवर्तन: समय की मांग:-
जैसे-जैसे 19वी शताब्दी आगे बढ़ी, औद्योगिक क्रांति भी विकसित होने लगी, और लगभग सी शताब्दी के तृतीय दशक तक तो औद्योगिक क्रांति अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंच गई विशेषकर इंग्लैंड में | औद्योगिक क्रांति की सफलता से एक और तो आर्थिक प्रचुरता का युग प्रारंभ हुआ किंतु इसके साथ ही साथ दूसरी और इसके अनेक बुरे परिणाम भी दृष्टिगोचर होने लगे | उन्हें समझौते की स्वतंत्रता ( freedom of contract ) के नाम पर अपनी जीविका निर्माण के लिए अधिक घंटों और न्यूनतम मजदूरी में बहुत ही अपमानजनक और स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता था
* उदारवाद /व्यक्तिवाद में स्तरों पर सुधार :-
( 1 ) राज्य के कर्तव्यों के सिद्धांत के निषेधात्मक स्वरूप के स्थान पर उसके सकारात्मक के योगदान की अनिवार्यता |
( 2 ) व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार को बंधनों का अभाव ने मानकर इसे उन कार्यों को करने की स्वतंत्रता माना जाए जो करने योग्य हो दूसरे शब्दों में स्वतंत्रता निषेधात्मक स्वरूप के स्थान पर सकारात्मक स्वरूप की स्थापना करना |
( 3 ) दो तत्वों को व्यवहारिक स्वरूप देने के लिए राज्य और व्यक्ति के पारंपरिक संबंधों को मजबूत करना |
* उपयोगितावाद में संशोधन:-
उन्होंने यह माना कि मानव क्रियाकलापो का प्रेरक तत्व सुख- दुख है और सुख दुखे की अनुभूति इंद्रियों के माध्यम से होती है किंतु बेथम की इस धारणा को स्वीकार करने के पश्चात उन्होंने वेतन द्वारा प्रतिपादित मात्रा संबंधित सुख वाद के सिद्धांत के स्थान पर गुण संबंधी सुख वाद के सिद्धांत को प्रतिपादित किया उनके अनुसार सुख में केवल मात्रा संबंधी अंतरी नहीं होता वरण गुणात्मक अंतर भी विद्यमान होता है कुछ सुख अधिक मूल्यवान और वांछित होते हैं बेंथम ने कहा था कि सुखों की मात्रा सम्मान होने से ताश के पत्तों के खेल और कविता पाठ के आनंद में कोई अंतर नहीं है इस बात का प्रतिपादन करके की कुछ सुख अधिक मूल्यवान और वांछित हैं मिल ने उपयोगितावाद को मानव गरिमा की भावो से भर दिया | इस दृष्टि से भौतिक सुख की प्राप्ति नहीं वरन आत्म विकास मानव क्रियाकलापों का उद्देश्य बन जाता है उपयोगिता वादी सिद्धांत में इस अनैतिक मापदंड का समावेश कर मित्र ने उपयोगितावाद में एक प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया परिणाम स्वरूप, राज्य का स्वरूप भी नैतिक संस्था जैसा प्रतीत होने लगा |
No comments:
Post a Comment